हिन्दी के प्रति
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है।संस्कृत के बाद विश्व की सबसे प्रतिष्ठित भाषा है।वैसे तो पूरे देश में इसका प्रचार प्रसार है।लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप मे हिन्दी को जो गौरव मिलना चाहिए, वह हम नहीं दिला सकें है।इसीलिए तो हमें हिन्दी दिवस के अतिरिक्त हिन्दी सप्ताह, पखवाड़ा भी मनाना पड़ रहा है।दुर्भाग्य यह है कि हिन्दी की दशा उस माँ के जैसी है,जिसके बच्चे पढ़ लिखकर आज ऊँचे पदों पर हैं और माँ उनके स्टैंडर्ड की भेट चढ़ उपेक्षा का दंश झेलने को विवश है।ये कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं की बहुत से देशों में सम्मान पा रही हिन्दी आज अपने ही नीति नियंताओ की उपेक्षा सहने को विवश है।आज देश में बहुत सारी संस्थाएं और लोग हिंदी को प्रोत्साहित कर रहे हैं तो वहीं बहुतायत में इसका मजाक भी उड़ाने में पीछे नहीं हैं।कान्वेंट स्कूलों में तो हिंदी अपनी बेचारगी पर तड़प रही है।हिंदी शिक्षक भी हिन्दी को अंग्रेजी में पढ़ा रहा है।क्योंकि स्टैंडर्ड का प्रश्न सामने आकर खड़ा हो जाता है।
कारण कुछ भी हो लेकिन जब बच्चों को प्रारंभ में ही हिन्दी के प्रति वैराग्य जैसा माहौल मिलेगा, तो बच्चा बड़ा होकर अंग्रेजियत ही तो झाड़ेगा।
हमारे राजनेता विदेशी दौरों पर हिन्दी की भरपूर उपेक्षा कर जैसे भारत रत्न की होड़ मचाते रहते है।
देश की राष्ट्रभाषा का इससे बड़ा अपमान और क्या होगा कि अनेक कार्यालयों/ संस्थाओं में ‘कृपया हिन्दी का प्रयोग करें’ की तख्तियां/बोर्ड दिख ही जाती हैं।
क्या यह शर्म की बात नहीं है कि आज भी पूरे देश में हिन्दी को कम से कम प्राथमिक कक्षाओं तक में अनिवार्य नहीं बनाया जा सका।ये हमारे प्रदेशों और देश के नीति नियंताओ के स्वार्थी राजनीति के कारण है।
कुछ ढाँचागत व्यवस्था भी कहीं न कहीं इसके लिये जिम्मेदार हैं।तभी हिन्दी के कार्यक्रमों में भी अंग्रेजी भारी पड़ती दिख जाती है।बहुत सारे बड़े कार्यक्रम सिर्फ़ दिखावे की भेंट चढ़ हिन्दी को उपेक्षित करते हैं।
संक्षेप में कहा जाय तो हम किसी भाषा का विरोध न करते हुए भी अपनी राष्ट्रभाषा को सम्मान देने के प्रति कमजोर दिखते हैं।अन्यथा कोई कारण नहीं है कि हिन्दी अपना स्थान न पा सके।
आवश्यकता इस बात की है कि पूरे देश में हिंदी को स्थानीय भाषाओं के साथ कम से कम हाईस्कूल तक अनिवार्य बनाया जाय।हर नागरिक, प्रदेशों और देश की सरकार इस दिशा में संकल्पित हो,तभी हिंदी अपना अभीष्ट पा सकती है ।
— सुधीर श्रीवास्तव