आज क्या बोलूँ मैं
आज क्या बोलूँ मैं
शायद कुछ खो सा गया है आज
वो चाँदनी रातों में जुगनुओं को पकड़ना
नानी के घर में छत पर चारपाई पर लेट कर तारों का गिनना
मासी मामा के संग ढेरों बातें करना
जब cousins ,कज़िंज़ नहीं सब बहन भाई होते थे
पीठू ओर गिट्टे खेलते थे
सूखे कचे आम की फाड़ियाँ का छिप कर खाना
आज करोना ने सब याद करा दिया
ना मोबाइल ,ना डन्लाप की गहरी नींद
ना पेप्सी ना रूहाफ़ज़ा ना मोमो ना बर्गर
दही की मीठी लस्सी और आम का मीठा आचार
यही तो था प्यारा सा सब कुछ
वो फ़ुरसत के लम्हे,वो भाई बहेनो की लड़ाईं
शायद कहीं आज खो सा गया
सब कुछ है पर वो घर नहीं
Mom dad हैं पर माँ बाप नहीं
आनंद है सब और पर मज़ा नहीं
मकान तो है पर घर नहीं
लाइफ़ तो है मगर सकून नहीं
वो माँ का आँचल और वो दादी सी दिखने वाली दादी नहीं
आँखो का सुरमा और बचों के माथे पर काजल का नज़र का टीका नहीं
रसोई में आटा तो है
पर गेहूं बीन्ने का त्योहार सा नहीं
शादियें तो हो रही हैं पर शादियों में मिलने वाले
जोड़े नहीं
बुआ तो आती हैं पर मूह फूलाने वाले फूफा नहीं
लेडी संगीत पर तो जाते हैं
पर एक महीना ढोलक की थाप नहीं सुनती
ससुराल तो है पर मायके लिवाने वाला भाई नहीं
सब कुछ तो है पर वो शायद कुछ नहीं
आज क्या कहूँ मैं
सब कुछ तो है मगर time नहीं है साहिब
मकान तो हैं पर घर नहीं शायद
दामाद तो हैं पर जमाई आने पर खीर पूड़ी नहीं
शादियों तो हो रही हैं पर
कार्ड के साथ आने वाले पीले चावल नहीं
आनंद तो घर -घर मैं है पर
मज़ा नहीं
पैसा तो है सकून नहीं
सावन की फूहारें तो हैं पर माँ के घर से आने वाला सिंधारा नहीं
खड़ी हूँ घर के आँगन में मैं आज
चेहरे पर मुस्कान तो है पर ख़ुशी नहीं
आज क्या बोलूँ मैं
आसमान तो वही है
पर sky pink हो गया है शायद
सब कुछ तो दिखता वही है
दिमाग़ तो वही है
पर मन शायद भटक गया है कहीं
रातें तो वही हैं पर आसमान वो नहीं
Mom dad तो है पर
माँ बाप नहीं
बर्फ़ का पानी अब infection फैलाता है गेहूं की रोटी Diabeties बढ़ाती है
रसोई तो वही है पर दिमाग़ से खाना पकता है
सब कुछ तो है पर तब cancer नहीं था
खूबसूरत लम्हे थे पर आज का busy schedule नहीं था
पानी ओर हवा बिकते नहीं थे
Sky पिंक नहींथा
जब तुम ,तुम थे ,
और मैं ,मैं थी.
— डॉक्टर मधु वेद