सामाजिक

दरकते रिश्ते

आज रिश्तों की नींव पैसों की चमक से दरकती जा रही है।अब तो नौ माह कोख में रखने वाली मां भी अपनी औलाद को पैसों के हिसाब से ही अपनत्व देने लगीं है।हर रिश्तों के बीच पैसे की चमक ने दरार पैदा कर दी है।माना की सभी ऐसे नहीं हैं पर अफसोस कि बहुतायत में ऐसा ही देखने को मिल जाता है।अपने स्टेटस की खातिर माँ बाप को भी तड़पने/घुट घुटकर जीने के लिऐ छोड़ दिया जाता है।भाई भाई और भाई बहन के आत्मिक संबंध भी पैसों की चमक में विलीन हो रहे हैं।
मुझे पता है आपकी प्रतिक्रिया तीखी और मुझे गलत साबित करने का जरूर प्रयास करेगी।परन्तु अपने दिल पर हाथ रखकर खुद से मुझे 100%गलत साबित कीजिए और बताइएगा।मैं ये नहीं कहता कि सभी के साथ ऐसा है परंतु आज ऐसा50-60% से अधिक ही होगा।यदि ऐसा ही जारी रहा तो हर रिश्ता बेमानी होता चला जायेगा और पारिवारिक समाज का संतुलन बिखरने से नहीं बचेगा।
इस सबके लिए न केवल हम आप बल्कि एक एक व्यक्ति परिवार समाज सभी दोषी हैं और विश्वास कीजिए कि हर किसी को कभी न कभी किसी न किसी रूप में गिरते अस्तित्व खोते जा रहे भावात्मक मानवीय आपसी सामंजस्य के दुष्परिणामों का प्रहार सहना ही होगा।लाख कोशिशों के बाद भी इससे बचना असंभव है।कोई भी अपने को सूरमा समझने की भूल न करे।छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब।दरकते रिश्तों को बचाना सबका दायित्व है।समय भी कम है।उत्तर दायित्व बड़ा है। संकल्प लें और प्रयास अभी से प्रारंभ कर दें,अन्यथा…….।

— सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

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