लघु कथा – श्रद्धा या श्राद्ध
पास वाले कमरे से बर्तन को जोर जोर से पीटने की आवाज आ रही थी ,लेकिन सुधा अपनी बहन से बात करने में मगन थी । बहू ने पास आकर सासू माँ से कहा ….माँ जी ,लगता है अम्माजी को कुछ चाहिए ।आप जाकर देख लीजिए मैं रसोईघर में हूँ ।सुधा ने बड़े ही अनमने मन से अपनी बहन से कहा .. तू अभी कॉल काट दे ,देखकर आती हूँ ।पता नहीं…. किस दिन इस बुढ़िया से मुक्ति मिलेगी /कहकर उसने फ़ोन रख दिया ।कमरे में जाकर देखा ,उसकी सास पेट पकड़कर इशारे में बोल रही थी …..भूख लग रही है । सुधा ने जोर से डाँट लगाते हुए कहा …क्यों इतना शोर मचा रही हो ,अभी थोड़ी देर है खाना लाने में …चुप हो जाओ !
पीछे से बहू ने आकर पूछा ..माँ जी अम्माजी के लिए रसीली सब्जी बना दूँ ?कोई जरूरत नहीं …सूखी सब्जी बनी है उसी से खा लेंगी । आजकल इतनी महँगाई है ,जरा सा खाती हैं फिर बिगड़ कर जाती है। बहू ने सहमति में सिर हिला दिया । अचानक सुधा बोली और हाँ बहू सुन परसों तेरे दादाजी का श्राद्ध है । बहू ने पूछा ….बताइये माँ जी फिर क्या क्या बनाना है ।सुधा हिदायत देती हुई बोली ..दो सब्जी ,रायता , मूली का कस ,दाल वाली कचौड़ी ,मेवा वाली खीर और इमरती बाजार से आ जायेगी ।बहू बोली …माँ जी इससे क्या होता है ? सुधा मुस्कराते हुए बोली ..इससे दादाजी खुश होकर आशीर्वाद देते हैं ।हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी । बहू के भाव अचानक से बदल गए और उदास होते हुए बोली ..माँ जी फिर तो अम्माजी भी मरने के बाद खुश रहेंगी , जीते जी तो उन्हें एक सूखी सब्जी से ही खाना पड़ता है जबकि उनके दाँत साथ नहीं देते । कम से कम उन्हें इतने सारे व्यंजन तो मिलेंगे ! इतना सुनते ही सुधा की आँखें शर्म से नीचे झुक गईं ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़