ग़ज़ल
फिज़ा है फूल है रवानी है।
तेरे बगैर सब बेइमानी है।।
पसीना जिस्म से सूखा ही कब,
क्या बुढ़ापा और क्या जवानी है।।
कई तलवार और एक म्यान,
उसकी आदत बहुत पुरानी है।।
अश्क जारी रहे आवाज न हो,
इश्क की बस यही निशानी है।।
तूफानों आओ कि जलूं सूरज,
दीप ने भी जिगर में ठानी है।।
ज़माने से तो लड़ लिया है शेष,
आपसे ही बहुत परेशानी है।।
— शेषमणि शर्मा “इलाहाबादी”