पूर्वोत्तर भारत में हिंदू धर्म
पूर्वोत्तर भारत में हिन्दू धर्मावलंबियों की संख्या सबसे अधिक है। इस क्षेत्र में हिन्दू धर्म की तीनों शाखाओं – शैव, वैष्णव और शाक्त के उपासक विद्यमान हैं। पूर्वोत्तर की बहुत बड़ी आबादी प्रकृतिपूजक या जड़ात्मवादी है, लेकिन प्रकृतिपूजक समुदायों पर भी हिंदू धर्म और संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है I पूर्वोत्तर के अनेक आदिवासी समुदायों का ईसाईकरण हो चुका है, लेकिन कुछ ऐसे भी आदिवासी समुदाय हैं जिनका हिन्दूकरण हुआ है I जो समुदाय पहले प्रकृतिपूजक या जड़ात्मवादी थे, कालांतर में वे हिंदू धर्म के अनुयायी हो गए I अनेक प्रकृतिपूजक या जड़ात्मवादी (Animistic) जनजातियाँ अब हिंदू धर्म के पर्व – त्योहार मनाती हैं और अपना परिचय हिंदू के रूप में देती हैं I असमिया साहित्यव, संस्कृ ति, समाज व आध्या त्मिपक जीवन में युगांतरकारी महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव का अवदान अविस्मधरणीय है । उन्होंहने पूर्वोत्त र क्षेत्र में एक मौन अहिंसक क्रांति का सूत्रपात किया । उनके महान कार्यों ने इस क्षेत्र में सामाजिक- सांस्कृकतिक एकता की भावना को सुदृढ़ किया । उन्होंयने रामायण और भगवद्गीता का असमिया भाषा में अनुवाद किया । पूर्वोत्तभर क्षेत्र में वैष्णहव धर्म के प्रसार के लिए श्रीमंत शंकरदेव ने बरगीत, नृत्या–नाटिका (अंकिया नाट), भाओना आदि की रचना की । उन्होंरने गांवों में नामघर स्थाापित कर पूर्वोत्तटर क्षेत्र के निवासियों को भाईचारे, सामाजिक सदभाव और एकता का संदेश दिया । इसलिए हिंदू धर्म पर श्रीमंत शंकरदेव का बहुत प्रभाव है I शिव पूर्वोत्तर के सभी समुदायों के सर्वमान्य ईश्वर हैं। आदिवासी और गैर आदिवासी सभी समुदायों में शिव की पूजा की जाती है तथा इन्हे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित किया जाता है। असम के बोडो समुदाय में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है I वेलोग सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति को बाथो बरई अथवा खोरिया बरई महाराजा के नाम से संबोधित करते हैं I यह शिव का ही एक नाम है I मैनाव धन की देवी हैं जिन्हें बुली बुरी भी कहा जाता है I इनके अतिरिक्त इस समाज में अन्य अनेक देवी – देवता हैं जिनकी पूजा – अर्चना की जाती है I कुछ देवी – देवताओं के नाम हैं – अगराउग, खोइला, खाजी, राजखंद्र, राजपुतुर, बुरा अली, असी मैनाव, साली मैनाव, बगराजा, बसुमती इत्यादि I इन असंख्य देवी – देवताओं में से कुछ को हितकारी एवं कुछ को अनिष्टकारी माना जाता है I इन्हें पशु –पक्षियों की बलि देकर तथा चावल से बनी मदिरा अर्पित कर प्रसन्न किया जाता है I बोडो समाज में अनेक पर्व – त्योहार मनाए जाते हैं I बैशाख महीने में बैशागु मनाया जाता है I इसे बिशु अथवा बिहू के नाम से भी जानते हैं I दो अन्य बिहू भी मनाए जाते हैं जिसे दोमासी (भोगाली बिहू) और कात्रिगाचा (कंगाली बिहू) कहते हैं I चैत्र मास के अंतिम दिन नव वर्ष का उत्सव मनाया जाता है I यह इस समाज का वसंतोत्सव है I इस दिन गाय की पूजा की जाती है I इसके दूसरे दिन बच्चे अपने माता – पिता एवं अन्य सभी बुजुर्गों से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं I बुजुर्ग अपने बच्चों को आरोग्य व सुख – समृद्धि का आशीर्वचन देते हैं I इस अवसर पर बथोउ की पूजा – अर्चना की जाती है तथा मुर्गे की बलि दी जाती है I चावल निर्मित मदिरा अर्पित करना इस पूजा का अभिन्न अंग है I अगले सात दिनों तक यह उत्सव चलता है I सभी लोग नृत्य – गीत के द्वारा अपना हर्ष प्रकट करते हैं I सामूहिक स्तर पर प्रतिवर्ष खेरई पर्व मनाया जाता है I इस त्योहार में बथाव अथवा शिबराई और मैनाव की पूजा की जाती है I ऐसी मान्यता है कि बथाव पंचभूतों (पृथ्वी, पवन, जल, अग्नि, आकाश) का प्रतिनिधित्व करते हैं I इन पाँच तत्वों से ही मानव शरीर निर्मित हुआ है I यह त्योहार कार्तिक माह में मनाया जाता है I त्योहार के समापन के समय सामुदायिक स्तर पर पितरों की पूजा की जाती है I असम के दिमासा कछारी समुदाय के जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है I इनका धर्म हिंदू धर्म और आदिवासी परंपरा का मिश्रित रूप है I इनके प्रमुख ईश्वर छह हैं – शिबराई, नइखु राजा, वा राजा, गनयुंग बाईयुंग और हमियादाव I शिबराई (भगवान शिव) दिमासा कछारी लोगों के सर्वोच्च ईश्वर हैं I किसी भी आयोजन में सर्वप्रथम शिव की पूजा की जाती है I इस समुदाय का विश्वास है कि यदि विधिवत शिबराई की पूजा – अर्चना की जाए तो सुख वैभव आता है, परिवार के सदस्य स्वस्थ रहते हैं एवं दुष्ट शक्तियों का शमन होता है I इस समाज में पुजारी को उच्च स्थान प्राप्त है I पुजारी को जोनथाई कहते हैं I बारह जोनथाई के ऊपर एक मुख्य पुजारी होता है जिसे गिसिया कहा जाता है I जोनथाई की मृत्यु के उपरांत गाँव के लोगों के परामर्श से गिसिया द्वारा जोनथाई के उत्तराधिकारी का चयन किया जाता है I सूअर, मुर्गा और भैस आदि पशु – पक्षियों की बलि देकर विभिन्न देवी – देवताओं की पूजा की जाती है I दिमासा समुदाय ने हिंदू धर्म को पूर्णतः अंगीकार कर लिया है परन्तु साथ – साथ अपने पारंपरिक विश्वासों, संस्कारों एवं रीति- रिवाजों को भी नहीं छोड़ा है I ईसाई धर्म गुरुओं तथा मिशनरियों द्वारा अथक प्रयास करने के बावजूद यह समुदाय ईसाईयत से दूर है I यह समुदाय हर्ष – उल्लास के साथ अपने परंपरागत पर्व – त्यौहार मनाता है I खेती आरम्भ होने से पूर्व रजिनी गबरा और हरनी गबरा का आयोजन किया जाता है I दिन में रजिनी गबरा और रात में हरनी गबरा का धूमधाम से आयोजन किया जाता है I दिमासा कछारी लोग भीम की पत्नी हिडिम्बा को अपनी पूर्वजा मानते हैं। सोनोवाल कछारी समुदाय हिंदू धर्मावलम्बी है I ये लोग महापुरुषिया वैष्णव धर्म में आस्था रखते हैं I गाँवों में मुख्य रूप से दो धार्मिक विभाजन है – सरनिया और भजनिया I इस समाज की वैष्णव धर्म में अटूट आस्था है, साथ – साथ ये लोग कुछ परंपरागत विश्वासों एवं रीति-रिवाजों को भी मानते हैं I अच्छी और बुरी आत्मा, दिव्य शक्तियों आदि के प्रति भी इनका विश्वास है I ये भगवान शिव की पूजा करते हैं I इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रीमंत शंकरदेव एवं माधव देव ने उल्लेखनीय कार्य किए थे । सोनोवाल समुदाय के लोग श्रीमंतशंकरदेव एवं श्रीमाधवदेव की जयंती समारोहपूर्वक मनाते हैं I फाल्गुन – चैत्र माह में बाथो पूजा की जाती है I इसके अतिरिक्त जन्माष्टमी, लखिमी सबाह, गाती गिरिभोज, गजई भोज इत्यादि त्यौहार श्रद्धापूर्वक मनाए जाते हैं I इनका आयोजन सामूहिक कल्याण, आरोग्य और सुख – समृद्धि की कामना से किया जाता है I रंगाली बिहू इस समुदाय का एक महत्वपूर्ण त्योहार है I यह पंद्रह दिनों तक मनाया जाता है I नृत्य – गीत इस त्योहार का प्रमुख आकर्षण है I महिलायें चीरा एवं पीठा तैयार करती हैं I बिहू के प्रथम दिन गाय – बैलों को स्नान कराया जाता है और उनको कच्ची सब्जियां खाने के लिए दी जाती हैं I उन्हें पीठा भी खिलाया जाता है I ये लोग बोहाग बिहू भी मनाते हैं I गाँव में निर्मित नामघरों में सभी उत्सवों, पर्व – त्योहारों का आयोजन किया जाता है I धर्म की दृष्टि से बर्मन समुदाय हिंदू धर्मावलम्बी है I हिंदू धर्म के सभी देवी – देवताओं की पूजा की जाती है I पूजा और वैदिक संस्कारों को संपन्न कराने के लिए पंडित की सेवाएँ ली जाती हैं I इनके सर्वोच्च ईश्वर शिव हैं I बर्मन समुदाय हिंदू धर्म के सभी पर्व – त्योहार मनाता है I इस समुदाय की आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण आस्था है I भूत – प्रेतों, दुष्ट शक्तियों एवं कुछ परंपरागत धार्मिक प्रतीकों के प्रति यह समाज अब भी आस्थावान है I किसी की मृत्यु होने पर ये लोग शवों को जलाते हैं I अल्पायु में मृत्यु होनेवाले शिशुओं के शव को दफनाया जाता है I लोगों को जब यह ज्ञात हो जाता है कि कोई वृद्ध व्यक्ति मृत्यु शय्या पर है और उसके बचने की संभावना नहीं है तो मरणासन्न व्यक्ति के कान में पारंपरिक आध्यात्मिक गीत सुने जाते हैं I बर्मन समुदाय पुनर्जन्म में विश्वास करता है I ऐसी मान्यता है कि मृत व्यक्ति का उसी परिवार में पुनर्जन्म होता है I शव यात्रा में आध्यात्मिक गीत गए जाते हैं I श्मशान जाते समय रास्ते में धान एवं कपास फेंके जाते हैं I रास्ते में कपास डाले जाने का उद्देश्य यह है कि मृतक को अपने परिवार की तलाश में कठिनाई नहीं होगी, वह कपास के सहारे अपने परिवार तक पहुँचने के लिए रास्ते की तलाश कर लेगा तथा पुनः उसी परिवार में जन्म ग्रहण करेगा I मृत्यु के तेरहवें दिन हिंदू रीति – रिवाज से अंतिम श्राद्ध किया जाता है I श्राद्ध ब्राह्मण पुजारी की देख रेख में होता है तथा मृत्यु के एक वर्ष बाद वार्षिक श्राद्ध करने की परंपरा है I
धार्मिक दृष्टि से असम का राभा समुदाय जड़ात्मवादी अथवा प्रकृतिपूजक है, परन्तु हिंदू धर्म के प्रभाव में आने के कारण ये लोग हिंदू देवी – देवताओं की पूजा करते हैं I इस समुदाय का हिन्दूकरण हो चुका है I येलोग शिव और शक्ति दोनों की उपासना करते हैं I ये लोग काली पूजा, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा, शिव पूजा आदि हिंदू धर्म के सभी त्योहार मनाते हैं I इस प्रकार राभा समुदाय धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदू धर्म को आत्मसात कर चुका है I राभा समाज का अपना कोई जातीय पर्व – त्योहार नहीं है I इस समुदाय का एक बड़ा वर्ग अन्य असमवासियों की भांति रंगाली बिहू और भोगाली बिहू मनाता है I दूसरा वर्ग बाईखो देवी की पूजा करता है I बईखो मुख्य रूप से रोंगदानी और मैतोरी समूह की देवी हैं I बईखो राभा समाज का सबसे महान धार्मिक उत्सव है I इसमें समस्त ग्रामवासी भाग लेते हैं I ग्रामवासियों एवं फसलों की रक्षा के उद्देश्य से वर्ष में एक बार सामूहिक रूप से इस उत्सव का आयोजन किया जाता है I बाईखो उत्सव में मदिरा अर्पित कर और पशु – पक्षियों की बलि देकर देवी को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है I येलोग लंगपूजा का धूमधाम से आयोजन करते हैं I लंग का शाब्दिक अर्थ महादेव है I महादेव के साथ – साथ धन कुबेर, ठकुरानी, दूधकुमार – फूलकुमार आदि देवी-देवताओं की आराधना की जाती है I इन सभी देवी-देवताओं की पत्थर की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं एवं पारंपरिक विधि से इनकी पूजा की जाती है I लंगपूजा बैसाख अथवा जेठ माह में नदी तट पर आयोजित की जाती है तथा सुख – समृद्धि व दुष्ट शक्तियों से रक्षा करने के लिए लंग (महादेव) से प्रार्थना की जाती है I यद्यपि देवरी समुदाय पर वैष्णव धर्म का व्यापक प्रभाव है, फिर भी इनलोगों ने अभी तक अपने पारंपरिक रीति – रिवाजों, विश्वासों, धार्मिक प्रतीकों और जीवन – मूल्यों का परित्याग नहीं किया है I टेंगापानिया और बारगोनिया शाखा के देवरी लोग अपने पूजा स्थल को थान कहते हैं जबकि दिबंगिया लोग इसे मिदिकु कहते हैं I देवरी समुदाय के प्रमुख ईश्वर शिव एवं पार्वती हैं I दिबंगिया लोग इस सर्वोच्च ईश्वरीय प्रतीक को कुंडी मामा कहते हैं I कुंडी का अर्थ भगवान शिव और मामा का अर्थ माता पार्वती है I शिव – पार्वती के अन्य नाम हैं – गिरा गिरासी, पिसा देमा, बलिया बाबा, पिसासी देमा आदि I ये लोग गाईलुरंग कुंडी (गणेश ) और कुंवर कुंडी (कार्तिकेय ) की भी पारंपरिक विधि से पूजा करते हैं I इन प्रमुख देवी – देवताओं के अतिरिक्त अन्य अनेक देवी – देवताओं की पूजा- अर्चना की जाती है एवं बलि देकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है I देवरी लोगो का विश्वास है कि देवी – देवताओं की नियमित पूजा – आराधना करने से सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होती है I देवी-देवताओं को मदिरा अर्पित करने की परंपरा नहीं है परन्तु पूजा के बाद मदिरा पान अवश्य किया जाता है I पूजा प्रायः बुधवार अथवा रविवार को होती है I इस समुदाय के कुछ अन्य देवी – देवताओं के नाम हैं – बकनमाक, मिरुसी, किन, दुआ चितेरे, बुरा दांगरिया, मोरा इत्यादि I देवरी लोग अनेक पर्व – त्योहार मनाते हैं जिनमें बोहाग बिहू अथवा बोहागियो बिसू तथा माघ बिहू अथवा मागियो बिसू प्रमुख है I बोहाग बिहू 14 अप्रैल तथा माघ बिहू 14 जनवरी को मनाया जाता है I असम के अन्य समुदायों की तरह ही देवरी समाज भी सात दिनों तक बोहाग बिहू मनाता है I ये लोग हमेशा संक्रांति के दिन ही बिहू नहीं मनाते हैं बल्कि एक – दो दिन आगे – पीछे पड़नेवाले बुधवार को इसका आयोजन करते हैं I थान पूजा के साथ इनका बिहू बुधवार के दिन आरंभ होता है I इस अवसर पर बकरी की बलि दी जाती है I प्रति चार वर्षों के बाद सफ़ेद भैंस की बलि दी जाती है I बिहू के अवसर पर प्रस्तुत किया जानेवाला देवधानी नृत्य त्योहार का प्रमुख आकर्षण है I देवरी समुदाय में मृत्यु के बाद शव को जलाया जाता है I बच्चों, गर्भवती महिलाओं और महामारी के कारण मृत लोगों के शवों को दफनाया जाता है I धार्मिक दृष्टि से मिशिंग समुदाय प्रकृतिपूजक अथवा जड़ात्मवादी है, लेकिन ये लोग हिंदू धर्मावलम्बी के रूप में अपना परिचय देते हैं I वे लोग हिंदू देवी – देवताओं की पूजा करते हैं, अनेक लोग वैष्णव धर्म को भी मानते हैं I दिव्य शक्तियों के प्रति ये लोग श्रद्धावनत रहते हैं I दिव्य शक्तियों को उई के नाम से जानते हैं I इनका मानना है कि यदि उई की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य बीमार पड़ता है, अकाल मृत्यु होती है, गरीबी आती है और सुख – शांति का अभाव हो जाता है I ये लोग पुनर्जन्म, आत्मा, स्वर्ग, नरक की अवधारणा में आस्था रखते हैं I ये लोग प्राकृतिक शक्तियों की पूजा – अर्चना करते हैं I इनके अतिरिक्त पहाड़ों और वनों में रहनेवाले अनेक देवी – देवताओं तथा भूत – प्रेतों के प्रति भी यह समाज गहरी आस्था रखता है I पशु – पक्षियों की बलि देकर इन देवी – देवताओं की पूजा की जाती है I इनकी मान्यता है कि कुछ अदृश्य शक्तियां मानव के शरीर और मन पर अमिट प्रभाव डालती हैं I तिवा समुदाय हिंदू धर्मावलम्बी है I ये लोग शक्ति के उपासक हैं I इस समुदाय के कुछ लोग वैष्णव धर्म में भी आस्था रखते हैं I पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में रहनेवाले तिवा समुदाय के धार्मिक विश्वासों एवं रहन – सहन में अंतर है I पहाड़ों पर रहनेवाले तिवा थान में स्थापित मूर्तियों की पूजा करते हैं I इनके सर्वोच्च देवता पाला कोंवर हैं I फा – महादेव भी इस समुदाय के प्रमुख देवता हैं I इसके अतिरिक्त बोतोलमा जी, मोरामु जी,रुंगसु कोंवारी, सुमई मोरा भी इस समाज के प्रमुख देवी – देवता हैं I इस समुदाय में सभी गोत्रों के खुल देवता भी होते हैं I मैदानी क्षेत्रों के तिवा कोई मूर्ति स्थापित नहीं करते I इनके पूजा स्थलों में त्रिपद की स्थापना की जाती है जो भगवान शिव का प्रतीक है I भगवान महादेव इनके सर्वोच्च ईश्वर हैं I महादेव की पूजा सबसे पहले की जाती है I भगवान शिव के अतिरिक्त ये लोग अन्य अनेक देवी – देवताओं की भी पूजा करते हैं I बरघर, नामघर और थानघर इनके पूजा स्थलों के नाम हैं I प्रत्येक खुटा का अपना एक बरघर होता है I इस समाज में गणेश, परमेश्वर, बदरमाजी, कुबेर आदि देवताओं की पारंपरिक विधि से पूजा की जाती है I आई गोसानी, लखीमी, पदुमी, कालिका, कामाख्या इत्यादि देवियों की भी नियमित रूप से पूजा की जाती है I बिहू, बरत, सगरा, मिसावा, जोन बिला मेला आदि इनके प्रमुख पर्व- त्योहार हैं I तिवा समुदाय के लोग मृत्यु के बाद शवों को जलाते हैं I जनसंख्या की दृष्टि से हाजोंग एक छोटा समुदाय है I इनकी अधिकांश आबादी मेघालय में निवास करती है I इसके अतिरिक्त असम के कार्बी ओंगलोंग तथा नार्थ कछार हिल्स जिलों में भी हाजोंग जनजाति के लोग रहते हैं I असम के लखीमपुर व ग्वालपारा जिलों में भी इनकी कुछ आबादी निवास करती है I धार्मिक दृष्टि से हाजोंग समुदाय हिंदू धर्मावलम्बी है, परन्तु अभी भी इस समाज में कुछ पारंपरिक रीति- रिवाजों एवं विश्वासों का पालन किया जाता है I अधिकांश लोग शक्ति के उपासक हैं किन्तु कुछ लोग वैष्णव भी हैं I येलोग अनेक देवी – देवताओं की पूजा करते हैं जिनमे से कुछ हिंदू धर्म से संबंधित हैं तो कुछ प्रकृतिपूजा से I तुलसी के प्रति हाजोंग समुदाय की अगाध आस्था है I प्रत्येक घर में तुलसी का पौधा विद्यमान होता है I तुलसी के पौधे के निकट संध्या के समय महिलाओं द्वारा धूप, दीप, अगरबत्ती जलाई जाती है तथा आध्यात्मिक गीत गाए जाते हैं I हाजोंग समुदाय अनेक भूत – प्रेतों में विश्वास करता है जिनमें से कुछ के नाम हैं – जारंग देव, माचंग देव, डैनी, मैला, भूत, जुखिनी इत्यादि I प्रतिवर्ष श्रावण मास के अंतिम दिन सर्पों की देवी मनसा की पूजा की जाती है I सभी पर्व – त्योहारों में गाँव का पुजारी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिसे अधिकारी कहा जाता है I प्रतिवर्ष बैशाख में बांस पूजा की जाती है I नए बांस को काटकर उसे सफ़ेद या लाल कपडे से सजाया जाता है और उसे भूमि में गाड़कर उसकी पूजा की जाती है I जमीन में तीन बांस गाड़े जाते हैं जिनमें से दो बांस मदन और गोपाल के प्रतीक हैं I कुछ लोग इसे शिव – पार्वती का प्रतीक मानते हैं जबकि कुछ लोग इसे कामदेव का प्रतीक समझते हैं I हाजोंग समुदाय में कार्तिक पूजा को विशिष्ट स्थान प्राप्त है I कार्तिक पूजा केवल महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, पुरुषों का इस पूजा में सम्मिलित होना अथवा पूजा स्थल में प्रवेश करना वर्जित है I यह कार्तिक माह के अंत में मनाई जाती है तथा इसमें भगवान कार्तिकेय की पूजा की जाती है I पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महिलाएं उपवास रखती हैं I पूरी रात महिलाएं नृत्य करती हैं और गीत गाती हैं I अन्य असमिया समुदायों की भांति हाजोंग समाज भी तीन बिहू मनाता है – रंगाली बिहू, माघ बिहू और काती बिहू I रंगाली बिहू को सैता संगरनी, माघ बिहू को पुष्ण और काती बिहू को कातीगासा कहा जाता है I इनका पुनर्जन्म, आत्मा के अमरत्व, स्वर्ग और नरक की अवधारणा में विश्वास है I मृत्यु के बाद हिंदू धर्म के अनुसार शवों की अंत्येष्टि की जाती है I मृत्यु के बाद शव को तुलसी पौधे के निकट रखा जाता है तथा उसे हल्दी मिश्रित जल से साफ किया जाता है I सिजु पौधे के प्रति हाजोंग समुदाय की अगाध आस्था है I प्रत्येक घर में सिजु पौधा विद्यमान होता है I सिजु के पौधे के निकट संध्या के समय महिलाओं द्वारा धूप, दीप, अगरबत्ती जलाई जाती है तथा इसकी पूजा की जाती है I ऐसा विश्वास है कि सिजु पौधा शिव का प्रतिनिधि है I धार्मिक दृष्टि से असम का मेच समुदाय हिंदू धर्मावलम्बी है, परन्तु अभी भी इस समाज में कुछ पारंपरिक रीति- रिवाजों एवं विश्वासों का पालन किया जाता है I अधिकांश लोग शिव के उपासक हैं किन्तु कुछ लोग वैष्णव भी हैं I शिव को बाथो कहा जाता है I काली की भी पूजा की जाती है जिसे बाली खुंगरी कहा जाता है I ये लोग अनेक देवी – देवताओं की पूजा करते हैं I मेच समाज धन की देवी लक्ष्मी (मैनाव) की भी पूजा करता है I मेच समुदाय का एक वर्ग केवल ब्रह्मा की पूजा करता है I इनकी पूजा में पशु – पक्षियों की बलि नहीं दी जाती है और पूजा के दौरान मदिरा पान भी नहीं किया जाता है जबकि बाथो के उपासकों द्वारा पशु – पक्षियों की बलि देना अनिवार्य है I पारंपरिक रूप से त्रिपुरा का भील समुदाय प्रकृति पूजक था लेकिन अब अधिकांश लोग हिंदू धर्म को मानते हैं I वेलोग ‘बाघदेव’ की पूजा करते हैं I येलोग भूत –प्रेत और जादू – टोना में भी विश्वास करते हैं I ’भगत’ अथवा ‘गुरु’ इस समुदाय के पूज्य पुरुष हैं जो सभी प्रकार के धार्मिक और पारंपरिक अनुष्ठान कराते हैं I भगवान शिव इनके सर्वोच्च देवाता अथवा ईश्वर हैं I वे अन्य हिंदू देवी – देवताओं की भी पूजा करते हैं I वे पेड़, नदी, पहाड़ आदि प्राकृतिक शक्तियों की भी पूजा करते हैं I वे दुर्गा की भी पूजा करते हैं I वे जंगल के देवता और भूत – प्रेतों की भी पूजा करते हैं I धार्मिक दृष्टि से त्रिपुरा की संताल जनजाति हिंदू धर्म को मानती है I वेलोग शक्ति के उपासक हैं । होली उनका मुख्य त्योहार है I इस त्योहार में वे हंडिया (एक प्रकार की देशी शराब) का खूब सेवन करते हैं और ढोल बजाकर समूह में गाते हैं और पारंपरिक नृत्य करते हैं I उनके पुजारी धार्मिक प्रमुख के रूप में कार्य करते हैं I पुजारी ही सभी अनुष्ठान कराते हैं । वे काली, दुर्गा, महादेव और अन्य सभी हिंदू देवी – देवताओं की पूजा करते हैं I वे दुर्गा पूजा और काली पूजा का धूमधाम से आयोजन करते हैं I उन पर ईसाई धर्म का प्रभाव नहीं है। त्रिपुरा का उचई समुदाय हिंदू धर्म को मानता है । वे लोग भगवान के साथ – साथ कुछ प्राकृतिक शक्तियों में विश्वास करते हैं । उनके प्रमुख देवता राधक, गरिया, केर, गंगा पूजा, नकसू मोटाई आदि हैं । हिंदू धर्म के अनुसार शवों का दाह संस्कार किया जाता है I धर्म की दृष्टि से त्रिपुरा के हलाम समुदाय के लोग पहले प्रकृतिकपूजक थे लेकिन कालांतर में इस समुदाय ने हिंदू धर्म को अपना लिया । अब येलोग लोग हिंदू मतावलंबी के रूप में अपना परिचय देते हैं, लेकिन अब भी उनके धार्मिक रीति – रिवाजों में प्रकृति पूजा के कुछ तत्व विद्यमान हैं । हलाम समुदाय की विवाहित महिलाएं सिंदूर, चूड़ी, लोहे के कंगन आदि धारण नहीं करती हैं जो आमतौर पर पड़ोसी बंगाली हिंदू महिलाएं धारण करती हैं I इस समुदाय के कुछ लोग वैष्णव धर्म का पालन करते हैं और राधा – कृष्ण की पूजा करते हैं । वे अनेक देवी – देवताओं की पूजा – अर्चना करते हैं, जैसे – निनु (सूर्य देवता), था (चंद्र देवता), तुई (जल देवता), निखेकनू (समृद्धि की देवी) आदि I कल्कि राजा (जल देवता) इनके मुख्य देवता हैं I महिला के गर्भ धारण करने के तीन माह बाद मुर्गी की बलि देकर कल्कि राजा (जल देवता) की पूजा की जाती है I सुरक्षित प्रसव और नवजात बच्चे के आरोग्य के लिए पुजारी द्वारा यह पूजा कराई जाती है I इस अनुष्ठान को “मोरई रोबोई” कहते हैं I इस समुदाय में बच्चे के नामकरण संस्कार की भी परंपरा है I नामकरण संस्कार को “रिमिंग पेक” कहा जाता है I पुजारी द्वारा नामकरण संस्कार कराया जाता है I त्रिपुरा के जमातिया हिंदू धर्मावलंबी हैं और वे शाक्त और वैष्णव दोनों मतों में आस्था रखते हैं । जमातिया के धर्म में प्रकृतिवाद के भी कुछ लक्षण देखे जा सकते हैं I वे विभिन्न देवी – देवताओं और दिव्य शक्तियों की पूजा करते हैं I वे परिवार और समाज की सुख – शांति और कल्याण के लिए अनेक त्योहार और पूजा आयोजित करते हैं I इस समुदाय का विश्वास है कि प्रकृति, दिव्य शक्तियों और पूर्वजों की कृपा से ही उनका अस्तित्व है I कुछ ऐसी दुष्ट शक्तियां हैं जिनके प्रकोप से रोग आदि होते हैं I बीमार होने पर बुरसा, कुवयचनमा जैसी अशुभकारी शक्तियों की पूजा की जाती है I गरिया पूजा जमातिया समुदाय का सबसे बड़ा वार्षिक त्योहार है I गरिया कल्याणकारी देवता हैं I वे अपने भक्तों की सभी कामनाएँ पूर्ण करते हैं I गरिया पूजा का आयोजन सामुदायिक आधार पर किया जाता हैं I गरिया के संबंध में अनेक मत हैं I कुछ लोगों का मानना है कि गरिया गणेश का ही एक रूप है तो कुछ लोग नरसिंह और कुछ शिव का रूप मानते हैं I त्रिपुरा के ओरंग समुदाय के लोग पहले अपने “सरना” धर्म को मानते थे लेकिन हिंदू धर्म का प्रभाव बढ़ने के बाद अब वे हिंदू धर्म को मानते हैं I वे हिंदू धर्म के सभी पर्व – त्योहार मनाते हैं और सभी हिंदू देवी – देवताओं की पूजा करते हैं I वे दुर्गापूजा, लक्ष्मीपूजा, सरस्वती पूजा, काली पूजा, मनसा पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि त्योहार मनाते हैं I ओरंग समुदाय के लोग गोहल पूजा (कृष्ण पूजा) का आयोजन अक्टूबर – नवंबर में करते हैं I काली पूजा के बाद गोहल पूजा का आयोजन किया जाता है I इस त्योहार के दिन गोशाला की साफ – सफाई की जाती है, गायों को धोया जाता है और उनके पूरे शरीर पर सरसों का तेल लगाया जाता है तथा टीका कर माला पहनाई जाती है I गायों को चावल – दाल खिलाया जाता है I गायें जो खाना खाती हैं उसे प्रसाद कहा जाता है I यह प्रसाद लोगों में बांटा जाता है I दंगरी त्योहार का आयोजन माघ – फाल्गुन माह में होता है I इस दिन पुरखों की पूजा की जाती है एवं परिवार की सुख – शांति की प्रार्थना की जाती है I