लघुकथा

लघुकथा – भीख

कहते हैं लाचारी इंसान को कितना बेबस बना देती है।कुछ ऐसा ही मि.शर्मा को अब महसूस हो रहा है।
कहने को तो चार बेटे बहुएं नाती पोतों से भरा पूरा परिवार है।मगर सब अपने अपने में मस्त हैं।
महल जैसे घर में मि.शर्मा अकेले तन्हाई में सिर्फ मौत की दुआ करते रहते हैं।शरीर कमजोर है,आँखों से कम दिखाई देता है।कानों से भी कम ही सुनाई देता है।
भोजन पड़ोसी दीपक के यहां से आता है।दीपक एक बेटे की तरह ही उनका ध्यान रखते हैं।उनके बच्चे भी समयानुसार देखभाल कर ही देते हैं।पति पत्नी तीज त्योहार पर आकर उनके पैर छूकर आशीर्वाद भी लेते हैं।ये सब किसी लालच में नहीं करते बल्कि अपने मां बाप की कमी के अहसास को महसूस कर मि.शर्मा में उनका अक्स दिखने और बुजुर्ग के आशीर्वाद की आकांक्षाओं के कारण करते हैं।
आखिरकार मि.शर्मा नहीं रहे।दीपक ने अपने कर्तव्य बोध के कारण उनके बेटों को सूचित कर दिया।सबने सुन लिया परंतु कोई जवाब नहीं दिया।
थोड़ी देर बाद शर्मा जी के बड़े बेटे का फोन आया कि आप अंतिम संस्कार कर दीजिये, जो भी खर्च होगा हम आपको भेज देंगें।
एक पल के लिए तो दीपक स्तब्ध हो गया, फिर खुद को संभाला और जवाब दिया-मि…।अपना पैसा अपने पास रखिए।मुझमें इतनी तो सामर्थ्य है ही कि बाप का क्रियाकर्म करने के लिए तुम्हारे भीख की जरूरत नहीं है।
……और फोन काट दिया।
जिसनें भी सुना वे सभी शर्मा जी के बेटों को लानत मार रहे थे।
◆सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

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