मुँह में कृष्ण, बगल में बकरी !
मुँह में राम, बगल में छुरी !
मेरी माँ पूजा-प्रवृत्ति की वर्त्तमान परिभाषा के अनुसार ज़िद्दी और मनमानी-आस्तिकता के करीब है!
इस प्रवृत्ति को मैं फ़ख़्त शरीर-शुद्धि उपासना कहता हूँ, किन्तु ईश्वरीय उपासना लिए यह प्रवृत्ति ढकोसलाजन्य व दकियानूसी प्रवृत्ति है ।
कई बरस पहले की बात है, मेरी माँ एकदिन पहले अरवा खाकर नियत दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के प्रसंगश: निर्जला उपवास में थी, जिसे वे रात्रि 12 बजे के बाद यानी श्रीकृष्ण के जन्म के बाद ही सिर्फ साबूदाना खाकर उपवास तोड़ती !
मैं मूल प्रसंग पर आता हूँ, जन्माष्टमी के दोपहर और माँ निर्जला उपवास में थी और श्रीकृष्ण की भक्ति और श्रद्धा में लीन थी ! तभी बगलवाले की बकरी आँगन में घुसकर फूल-पत्ती खा लेती है । माँ गुस्से में बाहर निकलती है, बकरी के पीछे लगती है और बक़रीवाली को गालियों से छलनी कर देती है।
मैं भी अकबका कर बाहर निकलता हूँ कि अचानक ही आखिर क्या हो गया ? मैंने जब इस छोटी-सी बात को जाना, तो माँ से कहा, ‘यह क्या माँ ! आज उपवास में हो, श्रीकृष्ण की श्रद्धा और भक्ति में लीन ! फिर मुँह से गाली निकाल रही हो, वह भी भद्दी-भद्दी । कम से कम उसे तो आज बख्श देनी चाहिए थी ।’
यह सुन माँ उल्टे मुझपर उबल पड़ी । मैंने भी प्रत्युत्तर में माँ को कह दिया, ”आपकी यह पूजा तो ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ लिए है ।”
लेकिन माँ चुप नहीं रही, उन्होंने कहा, ”तुम्हारी यह कहावत आज के प्रसंग में लागू नहीं हो सकती, कैसे कवि हो तुम ! तुकबंदी भी नहीं कर सकता ! कहावत सुनाना ही है, तो यह सुनाओ, ‘मुँह में कृष्ण, बगल में बकरी’ !”
मैं माँ की दकियानूसी-दबंगीयता से अवाक था!
इस मतभेद के बावजूद वो मेरी माँ है । हाँ, नेपोलियन बोनापार्ट भी ‘माँ’ के लिए तरसते रहे ! किन्तु दकियानूसी प्रवृत्ति के विरुद्ध मेरा मुहिम जारी है। चाहे वह मेरा रक्तसम्बन्ध हो, परिजन हो या प्रियजन !