ग़ज़ल
खुशनुमा जिंदगी नहीं आती,
ग़र तेरी दोस्ती नहीं आती।
गीत लिखता हूं शेर कहता हूं,
मत कहो शायरी नहीं आती।
मैं तरफदार हरदम सच का हूं,
झूठ की पैरवी नहीं आती।
मौत आती है रोज़ ही मुझ तक,
इक मगर ज़िंदगी नहीं आती।
चांद आता है संग में हरदम,
तन्हा क्यूं चांदनी नहीं आती।
सिर्फ यादे ख़ुदा ही काफ़ी है,
जब तलक़ बंदगी नहीं आती।
रौशनी बंटती ग़र बराबर से,
‘जय’ के घर तीरगी नहीं आती।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’