व्यंग्यबाण
मुख पर सुरीले गीत ह्रिदय रसहीन
वाणी झरे मेह मन करुणा विहीन
सुहाता जिन्हें निज स्वार्थ ही केवल
करें श्रृंगार किन्तु मुखड़ा श्री हीन
आत्म मुग्ध ऐसे कोई भाता ना
आप अपनी महिमा बताते प्रवीन
दूजे को गिराते अपनी जमाते
आत्म प्रशंसा नित ही गढ़ते नवीन
मिले यदि स्वयं से बली चुप लगाते
गाते प्रवंचक राग देख कर दीन
इन मिथ्याचारी से राम बचावें
बन हितैषी काटें ये बहुत महीन
— सुनीता द्विवेदी