आदमी
*आदमी*
ऐश के सामान करता जा रहा है आदमी
ज़िंदगी दोज़ख बनाता जा रहा है आदमी
हर नई तकनीक को अपना रहा है आदमी
बद गुमा बे मौत मरता जा रहा है आदमी |
नफरतो के शज़र की छाया तले है पल रहा
अब गुनाहों की डगर पर जा रहा है आदमी |
प्यार करने की रवायत को भुलाता जा रहा
नफ़रतो के साथ सिकता जा रहा है आदमी |
रोज़ लड़ता रोज़ घुटता और मिटता आदमी
ज़िंदगी से दूर होता जा रहा है आदमी |
मन ‘मृदुल’ है ग़मज़दा बस दर ब दर भटका किया ,
रेत को दरिया समझता जा रहा है आदमी |
मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश )