विरह वेदना की पीड़ा
विरह वेदना की पीड़ा को भला वे क्या जानेंगे ?
जो छोड़ गए बेबस हमें अपना क्या मानेंगे ?
तपते रेगिस्तान में जैसे कोई मुसाफिर भटक जाए,
दूर दूर तक हरा वन जल उसे कहीं न दिख पाए।
इस धधकती प्यास को भला वे क्या जानेंगे ?
जो छोड़ गए बेबस हमें अपना क्या मानेंगे ?
यूँ तो अक्सर समंदर शांत ही रहता है,
हद न हो पार तब तक किसी से कुछ न कहता है।
ज्वार उठा जो मन में उसे क्या पहचानेंगे ?
जो छोड़ गए बेबस हमें अपना क्या मानेंगे ?
संययत निर्मल धरती सबको जीवन का सुख देती है,
वही प्रकृति रोषित हो तो पाषाण में ज्वाला भर देती है।
इस ज्वलंत विस्फोट को वे क्या शीतल कर पाएंगे ?
जो छोड़ गए बेबस हमें अपना क्या मानेंगे ?
— मंगलेश सोनी