ये भोर किसी नार सी
केशों में अपने
निशा तमस को रंग के,
हाथों में नभ की लाली को भर के
ये भोर किसी नार सी आती।
निस्तब्ध धरा को सुरमई करती
विहंग,मधुकर की मौनता तोड़ती
नववधू के पायल की
झनकार सी आती।
रूखे जीवन , उदास से मन
चिंतित जागे जाने कितने जन
सुखी धरती में उनके मानो
राग मल्हार सी आती।
सकुचाती सूरज के तप के आलिंगन से
ऊषा खिले जब प्रणय के बंधन से
जड़ में जैसे
प्राण संचार सी आती।
ये भोर किसी नार सी आती……!
— सविता दास सवि