कविता
एक नारी की भी अजीब दास्तां होती है
घर को स्वर्ग बना कर रखती
सब घर में खुशबू बिखेरती
बच्चों को परिवरिश करती
खुद भी कष्टों को सहती
तनिक नहीं आराम वो करती
मन उसका जब खिन्न सा होता
थोड़ा सा आराम को सोचती
बच्चे भी नहीं सोने देते
शोर मचाते घूम घूम कर
आखिर मां लाचार हो जाती
फिर भी नहीं को आंहे भरती
है अजीब नारी का कर्तव्य
पूर्ण समर्पण भाव है रखती
ममता की मूरत व करुणा की सागर कहलाती।
— विजया लक्ष्मी