क्या इस जन्म से पहले हमारा अस्तित्व था और मृत्यु के बाद भी रहेगा?
ओ३म्
हम कौन हैं? इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं तो इसका उत्तर हमें वेद एवं वैदिक साहित्य में ही मिलता है जो ज्ञान से पूर्ण, तर्क एवं युक्तिसंगत तथा सत्य है। उत्तर है कि हम मनुष्य शरीर में एक जीवात्मा के रूप में विद्यमान हैं। हमारा शरीर हमारी आत्मा का साधन है। जिस प्रकार किसी कार्य को करने के लिये उसके लिये उपयुक्त सामग्री व साधनों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार हमारी आत्मा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये यह मनुष्य शरीर मिला है। शरीर केवल सुख व दुःख भोगने का ही आधार नहीं है अपितु यह साध्य ईश्वर की प्राप्ति के लिये है जिसे साधना के द्वारा प्राप्त व सिद्ध किया जाता है। हमारा साध्य ईश्वर को जानना, उसे प्राप्त करना, उसका साक्षात्कार करना तथा सद्कर्मों को करके जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष दुःख रहित तथा आनन्द से पूर्ण अवस्था का नाम है। मोक्ष में जीवात्मा को लेशमात्र भी दुःख नहीं होता। वह आनन्द से युक्त रहता है। सुखपूर्वक समय व्यतीत करता है। उसे वृद्धावस्था प्राप्त होने, किसी प्रकार का रोग व दुर्घटना होने तथा मृत्यु व पुनर्जन्म का दुःख नहीं सताता। उसे नरक व नीच प्राणी योनियों में जन्म लेने की चिन्ता भी नहीं सताती। मोक्ष अवस्था में सभी जीव ज्ञान व बल से युक्त रहते हैं जिससे वह दुःखों से मुक्त तथा सुखों व आनन्द से युक्त रहते हैं। परमात्मा व मोक्ष ही जीवात्मा के लिये साध्य है जिन्हें जीवात्मा मनुष्य जन्म लेकर वेदाध्ययन व वेदज्ञान को प्राप्त कर तथा वेदानुकूल कर्मों को करके सिद्ध व प्राप्त करती है। शरीर न हो और यदि वेदज्ञान व ऋषियों के ग्रन्थ न हों, तो मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य को न तो जान सकता है और न ही प्राप्त कर सकता है। अतः जीवात्मा को मानव शरीर परमात्मा की अनुकम्पा व दया के कारण मिला है जो हमारे माता-पिता के समान व उनसे कहीं अधिक हमारे हितों का ध्यान रखते हैं व हमें सुख प्रदान कराते हैं। इस कारण से मनुष्यों के लिये केवल सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य, दयालु एवं न्यायकारी परमात्मा ही उपासनीय, ध्यान, चिन्तन व जानने योग्य है। जो मनुष्य इसके लिये प्रयत्न नहीं करता उसका जीवन व्यर्थ एवं निरर्थक बन कर रह जाता है।
हम शरीर नहीं अपितु एक चेतन जीवात्मा हैं, इसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य करता है। भाषा के प्रयोग की दृष्टि से भी आत्मा व शरीर पृथक पृथक सत्तायें सिद्ध होती हैं। हम कहते हैं कि हमारा शरीर, मेरा हाथ, मेरा सिर, मेरी आंख आदि आदि। मैं व मेरा में अन्तर होता है। मैं मेरा नहीं होता। मेरा शरीर मुझ आत्मा का है। अतः आत्मा व शरीर पृथक हैं। इसलिये हम शरीर के लिये मैं व आत्मा का प्रयोग न कर मेरा शरीर का प्रयोग करते हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि आत्मा एक चेतन सत्ता व पदार्थ है। हमारा शरीर व इसके सभी अंग जड़ वा निर्जीव हैं। शरीर की मृत्यु हो जाने पर शरीर क्रिया रहित व चेतना विहीन हो जाता है। शरीर को काटें या अग्नि में जलायें, उसको दुःख नहीं होता परन्तु जीवित अवस्था में एक कांटा भी चुभे तो पीड़ा होती व आंख में आंसु आते हैं। इससे आत्मा नाम की शरीर से पृथक सत्ता सिद्ध होती है जो शरीर में रहते हुए सुख व दुःख का अनुभव कराती है व जिसके शरीर से निकल जाने अर्थात् मृत्यु हो जाने पर सुख व दुःख की अनुभूति होनी बन्द हो जाती है। अतः आत्मा को जानना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इसको जानकर ही हम अपने कर्तव्यों के महत्व को समझ सकेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिसका परिणाम दुःख व सन्ताप हो। वैदिक साहित्य में दुःख के कारणों की चर्चा की गई है। इस जन्म में हमें जो दुःख मिलते हैं वह हमारे पूर्वजन्म के वह कर्म होते हैं जिनका फल हम पिछले जन्म में भोग नहीं सके। कारण था कि भोग से पूर्व ही वृद्धावस्था व मृत्यु आ गई थी। इस जन्म में दूसरे प्रकार के दुःख इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के कारण भी होते हैं। एक व्यक्ति स्वार्थ व लोभवश चोरी करता है जिसका दण्ड उसे न्याय व्यवस्था से मिलता है। इससे उसे दुःख होता है। इसी प्रकार से जीवात्मा वा मनुष्य को आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक दुःख भी होते हैं जो हमारे कर्मों पर आधारित न होकर देश, काल व परिस्थितयों पर आधारित होते हैं। इन सब प्रकार के दुःखों से बचने के लिये हमें वेदज्ञान की प्राप्ति कर सद्कर्मों यथा ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र देवयज्ञ, इतर पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ करने के साथ परोपकार व दान आदि को करना होता है। ऐसा करके हम भविष्य में कर्मों के कारण होने वाले दुःखों से बच सकते हैं। हमारी आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर तथा सनातन सत्ता है। यह सदा से है और सदा रहेगी। इसलिये यह अनादिकाल से जन्म व मरण के बन्धनों में फंसती रहती है व मनुष्य जन्म प्राप्त कर साधना करके मुक्त होकर मोक्षावधि को प्राप्त होकर उसके बाद पुनः संसार में जन्म-मरण में आवागमन करती रहती है। इस कर्म-फल रहस्य को वेद, सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों को पढ़कर जाना जा सकता है। इन ग्रन्थों का अध्ययन करने से हम इस संसार सहित ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप से परिचित हो सकते हैं तथा दुःखों को दूर करने व भविष्य में अशुभ व पाप कर्मों के कारण होने वाले दुःखों से भी बच सकते हैं।
हमारी आत्मा अनादि व नित्य है। इस कारण से इसका अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। आत्मा नाशरहित है। विज्ञान का नियम है कि अभाव से भाव तथा भाव से अभाव उत्पन्न नहीं होता। भाव पदार्थों में संसार में केवल तीन ही पदार्थ हैं। यह पदार्थ हैं ईश्वर, जीव एवं प्रकृति। इन तीन पदार्थों की कभी उत्पत्ति नहीं हुई। यह सदा से हैं और सदा रहेंगे। परमात्मा व जीवात्मा अपने स्वरूप से अविकारी पदार्थ है। ईश्वर व जीवात्मा में विकार होकर कोई नया पदार्थ कभी नहीं बनता। प्रकृति त्रिगुणात्मक है जिसमें सत्व, रज व तम गुण होते हैं। इस प्रकृति व गुणों में विषम अवस्था उत्पन्न होकर ही यह दृश्यमान जड़ जगत जिसे संसार कहते हैं, बनता है। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति की सत्ता स्वयंभू अर्थात् अपने अस्तित्व से स्वयं है। यह तीनों पदार्थ किसी प्राकृतिक पदार्थ से बने हुए नहीं है। इन तीनों पदार्थों का कोई अन्य पदार्थ उपादान कारण नहीं है। यह तीनों मौलिक पदार्थ है। यह अनादि काल से अस्तित्व में है। इसी कारण से ईश्वर व जीवात्मा आदि सभी तीनों पदार्थ अनादि काल से हैं। अतः हमारी आत्मा भी अनादि काल से संसार में है। यह चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, नित्य, अविनाशी, जन्म व मरण के बन्धनों में फंसी हुई, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र सत्ता है। ईश्वर सर्वज्ञ व सब सत्य विद्यायों से युक्त सत्ता है। ईश्वर ही जीवों को सुख देने व उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भुगाने के लिये इस संसार की रचना व पालन करते हैं। अनादि काल से आरम्भ सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय का क्रम निरन्तर चलता रहता है। इस रहस्य को जान कर ही वेदों के अध्येता, ऋषि व विद्वान आदि लोभ में नहीं फंसते और दुःखों की सर्वथा निवृत्ति के लिये ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, परोपकार एवं दान आदि सहित सत्योपदेश व वेदप्रचार आदि का कार्य करते हुए दुःखों से मुक्त व मोक्ष प्राप्ति के उपाय करते हैं। हम सबको भी वेद में सुझाये पंच महायज्ञों का ही पालन करना है। इसी से हमारा त्राण व रक्षा होगी। इसकी उपेक्षा से हम मोह व लोभ को प्राप्त होंगे जिनका परिणाम दुःख व बार बार मृत्यु रूपी दुःखों को प्राप्त होना होता है। इन वैदिक सिद्धान्त व मान्यताओं को हमें जानना चाहिये। यदि नहीं जानेंगे तो हम कभी भी दुःखों से बच नहीं सकते।
ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी सत्तायें हैं। इस कारण इन तीनों पदार्थों का अतीत में अस्तित्व रहा है तथा भविष्य में सदा सदा के लिये रहने वाला है। ईश्वर जीवों के लिये अतीत व वर्तमान में सृष्टि बनाकर कर जीवों को जन्म देकर सुख व कर्मों का फल देते आये हैं और आगे भविष्य में भी सदा ऐसा करते रहेंगे। आत्मा की आयु अनन्त काल की है। इस दृष्टि से हमारा यह मनुष्य जन्म जो मात्र एक सौ वर्षों में सिमटा हुआ है, इसका आयु काल प्रायः नगण्य ही है। इस आयु में भी मनुष्य का अधिकांश समय बाल अवस्था, सोने तथा अन्य अन्य कार्यों में लग जाता है। शेष समय धन कमाने व सुख की सामग्री को एकत्र करने व बनवाने में लग जाता है। बहुत से लोग इसी बीच रोगग्रस्त होकर अल्पायु में ही मृत्यु की गोद में समा जाते हैं। अतः इस तुच्छ अवधि के जीवन काल मे हमें अपने मोह व लोभ पर विजय पानी चाहिये। इसके साथ ही हमें सत्यार्थप्रकाश, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये और दुःख निवारण के उपाय ज्ञान प्राप्ति व सद्कर्मों को करके करने चाहिये। यही जीवन पद्धति श्रेष्ठ व उत्तम है। इससे इतर कोई भी जीवन शैली जो हमें सुखों की प्राप्ति के लिए केवल धनार्जन करने के लिये प्रेरित करती तथा ईश्वरोपासना आदि की उपेक्षा करती है, सर्वांश में उत्तम व लाभप्रद नहीं हो सकतीं। इन बातों व तथ्यों को हमें जानना व समझना चाहिये। इसी में हमारा हित है। इनकी उपेक्षा हमारा भविष्य दुःखद व निराशाजनक बना सकते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगश्वर कृष्ण तथा वेदों वाले ऋषि दयानन्द के उदाहरण व उनके जीवन चरित्रों को हमें अपने ध्यान व विचारों में स्थापित करना चाहिये। उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये। ऐसा करके हमारा जीवन आत्मा के जन्म के उद्देश्य को पूरा करने में साधक व सार्थक होगा। यह सत्य एवं प्रामाणित है कि इस जन्म से पूर्व भी हमारा अस्तित्व था, यदि न होता तो हमारा जन्म क्योंकर होता? इस जन्म में मृत्यु होने पर भी हमारा अस्तित्व बना रहेगा। मृत्यु का होना आत्मा का अभाव व नाश नहीं है अपितु यह पुनर्जन्म का कारण व आधार है। अतः इनको ध्यान में रखकर ही हमें अपने जीवन को जीना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य