गाँव की व्यथा
मेरे बच्चों
तुम सब एक एक कर
मुझे छोड़कर जा रहे हो
आखिर मुझ में
ऐसी क्या कमी आ गई?
जो तुम सब रूठ कर जा रहे हो ।
मैंने तुम्हें अपनी गोद में खिलाया है
पाल पोसकर बड़ा किया है,
आज जब तुम सब
अपने पैरों पर खड़े हो गए
तब अपनी माटी को ही
ठुकरा के चल दिए हो।
याद है ना वह दिन
जब तुम सब मिलकर
खूब हुड़दंग मचाते थे ,
खेलते थे मस्ती करते थे
बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद प्यार पाते थे, त्योहारों की मस्ती में
सब भूल जाते थे।
कितना अपनापन था उन दिनों
अब तो मैं तो मैं वीरान सा हो रहा हूं ,
तुम सब से दूर होकर
कंगाल हुआ जा रहा हूं ।
आखिर क्यों तुम सब
मुझे उपेक्षित कर रहे हो
आखिर मेरी ही माटी से
पेट अभी भी भर रहे हो।
पर अब तुम सबमें
अपनेपन का भाव
खत्म हो गया है ,
मुझे छोड़कर घर से
मकान में पहुंच गए हो,
खुली हवा में सांस लेने की बजाय
धूल धुआं प्रदूषण में पल रहे हो ,
भूले से कभी मेरी याद आती भी है तो कब आते हो
कब चले जाते हो
कुछ पता ही नहीं चलता ।
अब तो लगता है
यह रिश्ता ही कुछ नया-नया सा है,
अपनों से ही अजनबी
सब हो गए हो।
अब तो रिश्तो का भाव खो रहा है
तब भला मेरा क्या मोल रह गया है?
मगर तुम सबका यूँ
शहर चले जाना
बहुत पीड़ा दे गया है ,
अब मै भी बहुत थक रहा हूँ
वीरानियों का घाव
नहीं सह पा रहा हूँ।
मुझे पीड़ा है कि तुम सब ने
मुझको नहीं छोड़ा
बल्कि अपनी जड़ों को ही छोड़ा है ,
खुद से मुंह मोड़ा है
या यूँ कहो कि
अपने वजूद को ही छोड़ा है।
— सुधीर श्रीवास्तव