सदियों से छिपाती
अपनी व्यथा कथा
न जाने इस प्राणी को
ईश्वर ने कैसे गढ़ा
जिसे किसी ने आज तक
नहीं पढ़ा।
बंद कर हृदय कमल की
पंखुड़ियों को
एक बेजान यंत्र सम
भोर से उठती गिरती
बंदिशों की मोटी दीवारों में
बंद रखती वजूद को।
अनगिनत मुखौटों में
ढोती जीवन का बो
ढाई अक्षर पाने को
तड़पती रोती चिल्लाती
भिक्षाटन पर अपने
हास्य का पात्र बन बिलबिलाती।
उसकी पीड़ा पर
नहीं आता किसी को तरस
संवेदना हीन धरा पर
होकर पल-पल प्रताड़ित
हर एक रूप में
ऊर्जा से भरी उर्द्धमुखी
हर क्षण लड़ती स्वयं से।
तिलमिलाती तिल तिल जलती
प्रज्ञावान मन मस्तिष्क को
कुंद कर अपाहिज बनाती
चेहरे की चमक में हंसती
हृदयतल की गहराई में रोती
प्रकृति सम दाता बनकर
पल पल लुटती लुटाती।
स्वार्थी बन रची मूक मूर्ति
विधाता ने संसार के विस्तार की
मूर्ति में प्राण फूंक
विधाता से हो गई चूक
न होते प्राण न होती पीड़ा
देती अंश झेलती दंश
बाधा रहित बढ़ता वंश।
रौंद कर तन बदन
छिन्न भिन्न कर सदन
दुशासन करता चीरहरण
न होती पीड़ा लेशमात्र
अगर प्राण हीन होता भवन।
— निशा नंदिनी भारतीय