कविता

नदी की गरिमा

किसको सुनाऊं
मैं अपनी व्यथा
कौन है जो सुनेगा?
मेरी करूण पुकार।
एक वो दिन भी था
जब मैं बहती थी बेरोक टोक
शीतल,निर्मल,स्वच्छ
जन जन के लिए उपयोगी थी,
मेरा भी मान सम्मान था
सबको मुझसे प्यार भी था,
सब मेरा ख्याल भी रखते थे
मुझमें कूड़ा करकट नहीं डालते थे
मेरे किनारे के पेड़ो को नहीं काटते थे
गंदे /जहरीले जल से मुझे बचाते थे
मुझे भी खुलकर बहने देते थे।
तब मैं भी प्रसन्न थी
कोई नुकसान नहीं पहुँँचाती थी।
मगर आज
क्या क्या नहीं हो रहा है मेरे साथ
चोरी चोरी खनन से
मेरा बदन घायल होकर
कराह रहा है,
मुझमें नालों/कारखानों का
गंदा/जहरीला पानी डाला जा रहा है।मुझे भी अतिक्रमण से
अवरुद्ध किया जाता है,
मेरी स्वच्छंदता पर प्रहार किया जाता है,
मेरे किनारों पर कूड़ा डाला जाता है,
मेरे प्यारे पेड़ों को
बेदर्दी से काटा जा रहा है।
फिर बाढ़/कटाव के लिए मुझे
कोसा जा रहा है।
मेरी आजादी पर पहरा लगाया जाता है,
ऊपर से सारा दोष
मुझ पर ही मढ़ा जाता है।
खुद को पाक साफ बताया जाता है,
मेरी पीड़ा से बस
मुँह मोड़ा जाता है,
मेरे जख्मों पर
नमक रगड़ा जाता है।
★ सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921