हास्य व्यंग्य

कुर्सी की आत्मकथा

मैं कुर्सी हूं- प्रत्येक युग के लिए परम आराध्या, स्वप्न सुंदरियों से भी अधिक आकर्षक और मोहक I इतिहास की अधिकांश लड़ाइयां मेरे लिए ही लड़ी गईं I मैं सर्वप्रिया हूँ, सभी मेरे लिए आत्मोत्सर्ग करने को तत्पर रहते हैं I लोगों का मुझसे अटूट नाता है I मुझे प्राप्त करने के लिए लोगों ने क्या – क्या नहीं किया, अपने भाई – बंधुओं को मार डाला, अपने पिता को कारागार में कैद कर दिया, मित्रों – सखाओं से मुंह मोड़ लिया I भले ही अपनी भार्या से संबंध विच्छेद हो जाए लेकिन मुझसे संबंध विच्छेद करना बहुत मुश्किल है I राजा, मंत्री, नौकरशाह, बाबू – सभी के लिए मैं प्रातः स्मरणीया और पूज्या हूँ I मुझे हस्तगत करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाए जाते हैं, राजनीति की बिसात बिछाई जाती है और राजनीति के रावणों की चरण वंदना की जाती है I राजतंत्र में बाहुबल, संगठन क्षमता और कूटनीति के माध्यम से मैं प्राप्त होती थी परंतु प्रजातंत्र में वोट ही मेरा माध्यम है I मैं नेताओं की पदयात्राओं, जनांदोलनों एवं भूख हड़तालों का अथ एवं इति हूं I मैं कामधेनु हूँ और कल्पवृक्ष भी, साधना हूं और साध्य भी, आराधना हूँ और आराध्य भी I जिसने मेरी उपेक्षा की उसके जीवन में अंधेरा छा गया, जिसने भी मुझे लात मारी वह दुनियावालों की लात का पात्र बन गया I मेरे लिए लोकतंत्र की अरथी उठाई जाती है, संविधान को ठेंगा दिखाया जाता है और चापलूसी पुराण का पाठ किया जाता है I मेरे लिए अनेक विश्वामित्रों ने अपनी तपस्या भंग कर दी, अनेक महात्माओं ने अपनी भक्ति को तिलांजलि दे दी तथा असंख्य महापुरुषों ने पुरुषोचित गुणों का परित्याग कर दिया I मेरे लिए दो ध्रुव एक हो जाते हैं, राम और रावण में सुविधाजनक समझौते हो जाते हैं, सिंह और मेमना जंगलराज स्थापित करने के लिए साझा कार्यक्रम घोषित करते हैं I
मैं कुर्सी हूं I कुर्सी अर्थात सत्ता, अधिकार, सुविधा, ऐश्वर्य, ख्याति, कुख्याति I मेरे सामने बड़े-बड़े लोगों की बोलती बंद हो जाती है, बाहुबली भूलुंठित हो जाते हैं, बुद्धिजीवी मेरी विरुदावली गाने लगते हैं I मेरे लिए रातोंरात आस्था बदल जाती है, ईमान बदल जाते हैं, बैनर बदल जाते हैं I कलिकाल में मैं ही सत्य हूँ और सब मिथ्या है – कुर्सी सत्यम, जगत मिथ्या I मैं सर्वाराध्या और सर्वशक्तिमती हूं I मैं चुनावी घोषणा पत्रों का सार और विपक्ष की टीस हूं I मैं पारस पत्थर हूं – मुझे प्राप्त करते ही कंगाल मालामाल और मूर्ख ज्ञानी हो जाते हैं I मेरे स्पर्श मात्र से अंधे नयनसुख हो जाते हैं, कंगाल मालामाल हो जाते हैं, दरिद्रता सात समुद्र पार भाग जाती है I मुझे प्राप्त करते ही रत्न – आभूषणों से घर भर जाते हैं I मैं कारुं का खजाना हूं, जिसके हाथ लग जाऊं वह कुबेर बन जाता है I मेरी अनुकंपा से खाकपति भी लखपति बन जाते हैं I मैं सिद्धिदात्री, बुद्धिदात्री, सर्वकामप्रदायिनी, सकलविघ्नविनाशिनी और समृद्धिप्रदायिनी हूं I छल – प्रपंच मेरी नींव है, तिकड़मबाजी मेरा ईमान है, धोखा मेरा धर्म है, निर्ममता मेरा अस्त्र है, झूठ मेरा कवच है, घड़ियाली आंसू मेरा भूषण है, भ्रष्टाचार मेरी संतान है, मिथ्याचार मेरा अलंकार है, शिष्टाचार मेरा शत्रु है I मेरे लिए औरंगजेब ने अपने असंख्य बंधु – बांधवों को मौत के घाट उतार दिए थे
मैं कुर्सी हूं – अनश्वर और सनातन I राजा विक्रमादित्य को मुझ पर आसीन होने के पूर्व बेताल के कठिन और उलझाऊ प्रश्नों के उत्तर देने पड़े थे I लोकतंत्र में मैदान और लड़ाई का स्वरुप बदल गया है I अब मुझे प्राप्त करने के लिए जनता के सम्मुख न निभानेवाले वादे करने पड़ते हैं, अनशन और पद यात्रा के भीड़खींचू और उबाऊ कार्यक्रम करने पड़ते हैं, बाहुबलियों के शरणागत होना पड़ता है और जिंदाबाद बोलनेवाले किराए के आदमी रखने पड़ते हैं I जो मुझे प्राप्त कर लेता है उसे और कुछ प्राप्त करने की इच्छा शेष नहीं रह जाती है I एक बार जो मेरी शरण में आ जाए, आजीवन मेरा होकर रह जाता है I मेरे पास आँख – कान नहीं है, इसलिए मैं दीन – दुखियों के चित्कार को नहीं सुन पाती, भूखे – नंगो की दुर्दशा नहीं देख पाती I मेरे पास प्रपंची मस्तिष्क और मजबूत पैर हैं I मैं इन दोनों अंगों का भरपूर इस्तेमाल करती हूं I अपने अहर्निश सक्रिय रहनेवाले मस्तिष्क से राजनीति की बिसात बिछाती हूँ, विरोधियों के कुचक्र को नाकाम करती हूं और बलिष्ट पद – प्रहारों से आगे वाली कुर्सी पर आसीन बंधु – बांधवों को धक्के मारकर भूमिसात करती हूँ I
मैं सर्वबाधाहारिणी और महाविलासिनी हूँ I मैं सुर – नर – मुनि मोहिनी और अमृतवर्षिणी हूं I मैं रस से परिपूर्ण हूं I अपने ऊपर आसीन होने वाले को मैं रस से आप्लावित कर देती हूं लेकिन ना जाने किस मुहूर्त में किसी बददिमाग व्यक्ति ने मेरा नाम ‘कुरसी’ रख दिया जबकि मैं तो ‘सुरसी’ हूं I साहित्य के आचार्यों ने भी नवरसों में जगह न देकर मेरे साथ अन्याय किया है I श्रृंगार को रसराज कहा गया है जबकि साहित्य के सभी रसों में मैं संचरण करती हूं I इसलिए साहित्य के अभिनव आचार्यों को कुर्सी रस नामक एक नए रस का प्रतिपादन करना चाहिए I इति सकलकलि कलुषविध्वंसने कुर्सी महात्म्यं प्रथम अध्याय: समाप्त: II

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]