लघुकथा

रिश्ते

क्या ये भाई-भाई लगा रखा?
अब क्या हुआ,भाग्यवान?
हुआ तुम्हारा सिर।
जब देखों, तुम्हें अपने भाई की चिन्ता लगी रहती हैं।
नए कपड़े लाओगे,पहला जोड़ा भाई के लिए।
मेरी समझ में नहीं आता।
अरे भाग्यवान, मेरा एक ही तो भाई हैं।
अच्छा जी,फिर सारा घर उन्हीं पर लुटा दो।
अब चुप भी हों जाओ।
आज इसका फैसला हो जाए।
कैसा फैसला?
बस मैं और सहन नहीं कर सकती।
क्यों बात बड़ा रही हो?
मैं बात बड़ा रही हूँ।
तुम घर का नाश करने पर लगे हो,और मैं बात—–।
अरे क्या कर दिया मैंने?
आज भगवान, तुम्हारे ऊपर धन की बारिश कर रहा,
तो तुम उसे दूसरों पर उड़ाने लगे हो।
सुनो,नासमझ!
मेरे ऊपर धन की बारिश भगवान की वजह से नहीं,
मेरे बड़े भाई की वजह से हैं।
वह फटी हुई आँखों से,पति की तरफ देख रही थीं।
मेरे भाई ने ही,अपनी सारी जमा-पूँजी,मेरी पढ़ाई पर खर्च कर दी।मेरे सपनों को साकार करने के लिए।उसने रात-दिन मेहनत की ताकि मैं कुछ बन जाऊँ।
पत्नी की आँखे, शर्म से झुक गई।
उसने रोते हुए कहा,पर भाई सहाब ने ऐसा क्यों किया?
आज के समय में,लोग दूसरों के लिए कुछ नहीं करते,पर
भाई सहाब ने आप पर सब कुछ क्यों न्योछावर कर दिया?
अरे भाग्यवान,यही तो रिश्ते हैं।
सही कहा आपने,आज हम रिश्तों की कद्र करेंगे।
तभी तो कल रिश्ते भी हमारी कद्र करेंगे।
रचना,अप्रकाशित,स्वयं-रचित हैं।

राकेश कुमार तगाला

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