गज़ल
बेवजह मुस्कुराने की वो आदतें भी गईं
साथ तेरे मेरी सब शरारातें भी गईं
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शहर छूटा, छूटे दोस्त-ओ-दुश्मन सारे
मेरे नाम से बावस्ता तोहमतें भी गईं
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बंद होते ही आँखें फेर लिया मुँह सबने
मुहब्बतें भी गईं और अदावतें भी गईं
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पास मेरे अब न वक़्त है न ही हिम्मत
कैसे कह दूँ मगर सारी हसरतें भी गईं
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अब कुछ है ही नहीं तो किसी को क्या दूँ मैं
संग दौलत के अपनी सब सखावतें भी गईं
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।