एहसास!
आज मैं सीमा को मनोवैज्ञानिक के पास ले जा रहा था. सीमा की यह हालत क्यों हुई, इस पर मनन करना स्वाभाविक था.
कितना मना किया था उसने मुझे! शराब मत पियो! सिगरेट मत फूंको! पर मैं माना ही कब था! पुरुष जो था मैं! सही फैसलों का ठेका ले रखा था मैंने. इसलिए उसकी हर बात पर तर्क (भले ही वे कुतर्क हों!) देकर खुद को सही साबित करता रहा और नशे की लत को हवा देता रहा. सीमा के सारे तर्क बौने रह गए.
नतीजा तो बाइ पास सर्जरी और बार-बार ऐंजियोप्लास्टी का दंश मुझे ही झेलना पड़ा. मेरे साथ-साथ सीमा भी भुगतती-सुलगती रही.
शराब-सिगरेट बंद हुए तो सारा दिन कुछ-न-कुछ चबाते रहने की लत पाल ली थी मैंने. अब ड्राइ फ्रूट तो नुकसान वाले नहीं ना हैं! मेरा तर्क था. कहीं निकलता तो भी जुगाली चलती रहती अपने को दादा समझने लग गया था.
सीमा ने मनोवैज्ञानिक से भी बात करवाई. मनोवैज्ञानिक को भी मैंने अपने तर्कों से चुप करा दिया था. ”आप इनको टोकना छोड़ दीजिए.” सीमा को सलाह मिली थी. दांतों के डॉक्टर से भी उसने बात की. ”दांतों की तो खैर कोई बात नहीं, पर पेट को भी तो रेस्ट मिलना चाहिए न!” दांतों के डॉक्टर का कहा भी मैंने अनसुना कर दिया, विज्ञान जो पढ़ा था, वह कब काम आता!
विवश हो अब सीमा चुप रहने लगी थी. खुद ही सारा सामान चाय के साथ रख जाती. पर उसमें वह लुत्फ़ कहां था! भाई से छीनकर पापड़ खाने में जो मजा आता था, वह मां द्वारा खुद दिये गए पापड़ में कहां आता?
”डॉक्टर साहब, भूल जाना तो खैर उम्र का तकाजा है, पर यह खोई-खोई सी रहती है. एक गैस की नॉब ऑन करती है, लाइटर दूसरे को दिखाती है. डॉक्टर साहब इसकी चुप्पी बर्दाश्त नहीं होती!”
”पहले इसने आपको झेला था, अब आपकी बारी है.” मनोवैज्ञानिक ने जांच करके कहा था. कुछ दवाइयां-नुस्खे भी दिये थे.
अब मुझे चाय में दुगनी चीनी मिलती है तो उसे भी चुपचाप पी लेता हूं, बिना चीनी वाली चाय की शिकायत भी नहीं करता.
सहने-झेलने में कितनी पीड़ा है, अब मुझे एहसास हो रहा था.
10.10.2020
(विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर विशेष)
कभी-कभी जिंदगी में बहुत कुछ ऐसा घट जाता है, जिसका हमें एहसास ही नहीं होने पाता. परिणाम भुगतने पर भी अपनी वर्चस्वता का दंभ और अहं अपना रंग जमाए रखते हैं. जब खुद के साथ वैसा होने लगता है, तो पता चलता है कि हमने क्या खोया, क्या पाया. उस समय बस पश्चाताप ही शेष रहता है.