दर्द को शब्द में ढालकर आई हूं
दर्द को शब्द में ढालकर आई हूं,
बैठकर रोना मुझको गवारा नही।
पीर के मेघ पलकों में छाए मगर,
अश्रुमोती न किंचित बहाउंगी मैं,
दर्द का गांव हो, धूप हो, छांव हो,
गीत होंठो से अब गुनगुनाउंगी मैं,
हाले दिल समझना मुमकिन हो गर,
तेरी ज़ानिब करूँगी इशारा नही।
दर्द को शब्द में ढाल कर आई हूँ।
रात काली सही ,है सुबह हर्षमय,
जिंदगी की कसौटी, सिखाती है ये,
अग्नि की दाह पा स्वर्ण उत्कर्षमय,
सिंह सा उठो लक्ष्य तक तुम चलो,
बनके शावक करो अब नजारा नही।
दर्द को शब्द में ढाल कर आई हूँ।
सबको दो रौशनी अपने व्यक्तित्व से,
तुम भले ताप से नित्य जलती रहो,
राह में कितनी बाधाएं आएं मगर,
वीर,निर्भीक बनकर के चलती रहो,
वक्त है अपने आँचल को परचम करो,
हिना रचने से होगा गुजारा नही।
दर्द को शब्द में ढालकर आई हूं।
भीगी आंखों से भी गुनगुनाएगें हम,
आखिरी वक्त भी मुस्कुरायेंगे हम,
गीत जब भी पढ़ोगे कभी तुम मेरे,
अश्क़ बन चश्म-ए-तर,चूम जाएंगे हम,
लबो रुख़सार को चूम जाएंगे हम,
आसमां पर सदा हम नज़र आएंगे,
टूट जाएंगे हम वो सितारा नही।
दर्द को शब्द में ढालकर आई हूं,
बैठकर रोना मुझको गवारा नही।
— अभिलाषा सिंह