गज़ल
हालात के साँचे में न सोच कि ढल जाऊँगा
कोई मौसम नहीं हूँ मैं जो बदल जाऊँगा
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न इतना फिक्रमंद हो तू मेरे बारे में
वक़्त के साथ साथ खुद ही संभल जाऊँगा
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इरादे और पुख्ता होते हैं दुश्वारियों से
गम की लौ से किस तरह पिघल जाऊँगा
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जहाँ तक सोच की परवाज़ भी न पहुंच सके
मैं इतनी दूर, इतनी दूर निकल जाऊँगा
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मैं खोटा सिक्का ही सही मगर यकीन रख
खरे वक़्त पे बाज़ार में चल जाऊँगा
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।