बिहारी कहने में गर्व है, शर्म नहीं !
किसी ने अच्छा लिखा है- एक राज्य के रूप में हमारी प्रगति का आलम ये है कि हमें स्वयं को बिहारी कहने में भी शर्म की अनुभूति होती है। हम सब बिहार के बाहर अपने आप को दिल्ली वाला बताते फिरते हैं। और आज भी हम नालंदा, विक्रमशिला, मगध, वैशाली और रोहितास्व के पौराणिक नगर रोहतास पर इतराते फिरते हैं। क्या कारण है कि बिहार बस मजदूर पैदा करने वाला राज्य बन कर रह गया है? क्या कारण है कि सारी जननायक ट्रेनें बिहार से ही चलती हैं, महानगरों की ओर। इन ट्रेनों को मैं ‘मजदूर एक्सप्रेस’ कहता हूँ। चौकिये मत! रेलवे की नजर में बिहारियो की औकात यही है। वरना क्या कारण है कि पूरे देश में समय पर (2-4 घंटे की देरी से) चलने वाली ट्रेनें बिहार मे 12-13 घन्टे नहीं, 20-40 घंटे भी लेट हो जातीं हैं। और मजाल है कि किसी रेलवे अधिकारी को फर्क तक पड़ता हो। वो भी तब जब देश के हर रेलवे जोन में बिहारी लोग ठसाठस भरे हैं। कारण बस एक ही है- बिहार मजदूरों का राज्य है। उससे भी अधिक आत्मसम्मान से हीन लाशों का राज्य है। प्रवासी मजदूरों और श्रमिकों का राज्य है। हम सब प्रवासी मजदूर ही हैं, कुछ ज्यादा कमा रहें हैं तो कुछ कम, बस दिहाड़ी का फर्क है। बिहारी युवा रोजगार मांगने वाला बन कर रह गया है। रोजगार देने वाला क्यों नहीं बन पाता? पूछियेगा अपने-अपने भगवानों से, जिनका झन्डा ढोते-ढोते हम अपनी पहचान भूलकर भेड़ों की भीड़ बनकर रह गये हैं। हमारे नेता हमें ठाकरे और ठाकोर में उलझा कर रखना चाहते हैं, ताकि हम उनसे उनकी अकर्मण्यता पर प्रश्न नहीं पूछ पायें। विद्यालय, सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, विश्वविद्यालय, उद्योग और कृषि के विनाश पर उनसे सवाल नहीं कर पायें। समझिए इन रंगे सियारों के लम्पटपन को। अगर वाकई कुछ बदलना चाहते हैं, तो इस दिवाली अपने नेताओं को शुभकामनायें नहीं लानतें भेजिए। छठ के ठेकुआ के साथ अपने भाग्य विधाताओं और नीति निर्माताओं को लानतें भी भेजिये। टोकरी भर-भर कर, उपर से रंगीन पन्नी लगा कर भेजिए। शायद उनकी आत्मा जग जाये। अगर उनकी आत्मा नहीं भी जगी, तो कम से कम हम सवाल पूछना तो सीख ही जायेंगे। लव-कुश ने भी चक्रवर्ती सम्राट अयोध्या नरेश प्रभु राम की अजेय सेना को रोक लिया था। रोकिये सम्राट के सैनिकों का रास्ता, उनके चमचों-मंत्रियों का रास्ता। पूछिये क्या किया उन्होने बिहार के युवाओं के लिये? हो सके तो कुछ लानतें हम जैसे प्रवासियों को भी भेजिये, क्या पता हमारे अंदर का ही हनुमान जग जाए? लेखक का नाम-पता खोज रहा हूँ!