वेदोद्धारक, समाज सुधारक तथा आजादी के मंत्रदाता ऋषि दयानन्द
ओ३म्
विश्व का धार्मिक जगत ऋषि दयानन्द का ऋणी है। उन्होंने विश्व को सद्धर्म का विचार दिया था। एस सद्धर्म की पूरी योजना व प्रारूप भी उन्होंने अपने ग्रन्थों व विचारों में प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतया था कि मत-मतान्तर व सत्य धर्म में अन्तर होता है। मत-मतान्तर धर्म नहीं अपितु अविद्या व सत्यासत्य से युक्त मत, पन्थ व सम्प्रदाय होते हैं। सत्यधर्म तो वही होता है जो ईश्वर प्रदत्त ज्ञान से आरम्भ होकर सृष्टि की प्रलय तक विद्यमान रहता है तथा प्रायः अपरिवर्तनीय रहता है। ऐसा धर्म, धर्मग्रन्थ व मत केवल वेद व वैदिक धर्म ही हैं। वेदों की उत्पत्ति पर भी ऋषि दयानन्द ने विचार किया, उसकी खोज की थी और इससे प्राप्त तथ्यों को उन्होंने अपने व्याख्यानों तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत कर मानवजाति का उपकार किया है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों और वेद में मौलिक अन्तर यह है कि मत-मतान्तरों के सभी ग्रन्थ मनुष्यों के द्वारा रचित, प्रकाशित व प्रचारित हैं जबकि वेद सृष्टि के रचयिता, पालक, संहारक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अविनाशी परमात्मा द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उसके द्वारा उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को प्रदत्त ज्ञान है।
परमात्मा सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने के कारण सभी जीवों के भीतर व बाहर विद्यमान है। ज्ञानवान् एवं सर्वशक्तिमान होने के कारण वह पूर्वकल्पों की तरह अपने नित्य ज्ञान वेदों का ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा के द्वारा प्रकाश करता है। वेदों के द्वारा परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में, जब वर्तमान का कोई मत-मतान्तर नहीं था, धर्म व अधर्म, पाप व पुण्य, शुभ कर्म व अशुभ कर्मों, कर्तव्य तथा अकर्तव्यों सहित सत्य ज्ञान व शिक्षाओं के दान के लिये मनुष्यों को चार वेदों का ज्ञान दिया था। महाभारत युद्ध तक के 1 अरब 96 करोड़ वर्षों तक सारी सृष्टि पर वेदों की ही शिक्षाओं के अनुसार धर्म व शासन चले हैं। महाभारत युद्ध में विद्वानों की क्षति तथा अव्यवस्था के कारण वेदों का सत्यस्वरूप सुरक्षित नहीं रहा। इस कारण देश व विश्व में अज्ञान फैल गया। इसी कारण से सर्वत्र अकर्तव्य व अज्ञान की स्थिति में मत-मतान्तरों की उत्पत्ति व प्रादुर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द के जीवन काल में भी देश व विश्व में अज्ञान, अंधविश्वास, मिथ्या परम्परायें तथा अविद्यायुक्त मत-मतान्तर प्रचलित थे। इनका स्वरूप आज की तुलना में अधिक जटिल था। ऋषि दयानन्द ने सत्य के अनुसंधान से सत्य वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित चार वेदों व वेदांगों का अध्ययन कर पूर्ण विद्या को प्राप्त किया था। उन्हें विदित हुआ कि संसार को सबसे अधिक आवश्यक अविद्या का नाश करने सहित विद्या का प्रचार व वृद्धि करने की है। इस उद्देश्य की पूर्ति में ही उन्होंने अपने जीवन को समर्पित किया जिससे देश देशान्तर में वेदों के सत्यस्वरूप, सत्य विद्याओं सहित ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति से जुड़े सत्य रहस्यों का प्रचार प्रसार हुआ। उनके इन प्रयासों से सारा विश्व लाभान्वित हुआ है। लोगों में ज्ञान ग्रहण करने व अपने हित व अहित के अनुसार उसे स्वीकार अस्वीकार करने की अलग अलग क्षमतायें हुआ करती हैं। अनेक विधर्मियों ने वेदमत को स्वीकार भी किया है। कुछ विधर्मी विद्वानों ने वेदों प्रशंसा भी की है और भारतीय परम्परा के अनेक लोगों व विद्वानों ने शुद्ध वैदिक धर्म को स्वीकार भी किया है। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने ऋषि दयानन्द का शिष्यत्व प्राप्त कर वेदों का अध्ययन किया तथा उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में धारण कर दिग्दिगन्त प्रचार किया।
ऋषि दयानन्द के कार्य क्षेत्र में अवतीर्ण होने के अवसर पर सारा विश्व अन्धविश्वासों व पाखण्डों से ग्रस्त था। भारत में अविद्या व अन्धविश्वास कुछ अधिक ही थे। यहां पाषाण मूर्तिपूजा, अवतारवाद की धारणा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद आदि सामाजिक कुप्रथायें एवं अनेकानेक अन्धविश्वास तथा पाखण्ड प्रचलित थे जिससे मानव समाज असंगठित होकर दुःखी व त्रस्त था। मानव मानव में ऊंच नीच की भावनायें तथा छुआ-छूत जैसी कुप्रथायें भी प्रचलित थीं। हिन्दुओं में बाल विवाह होते थे, विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था तथा विधवाओं को नारकीय जीवन व्यतीत करना पड़ता था। ऋषि दयानन्द ने जब वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया तो उन्हें सत्य को स्थापित करने के लिये सत्य वैदिक मान्यताओं के प्रचार सहित असत्य व अवैदिक मान्यताओं व परम्पराओं का खण्डन भी करना पड़ा। ऋषि दयानन्द की प्रत्येक बात तर्क एवं युक्ति सहित वेद के प्रमाणों तथा सृष्टिक्रम की अनुकूलता व अनुरूपता पर आधारित होती थी। ईश्वर व आत्मा का शुद्ध व सत्य स्वरूप विश्व में अज्ञात प्रायः था। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सत्य विधि व प्रणाली से भी लोग अनभिज्ञ थे। सबकी उपासना पद्धतियां अलग अलग तथा तर्क एवं युक्तियों पर आधारित नहीं थी। इस क्षेत्र में भी ऋषि दयानन्द ने वेदों की शिक्षा तथा महर्षि पतंजलि के योगदर्शन के आधार पर उपासना की सत्य व सार्थक उपासना पद्धति प्रदान की। इसके लिये उन्होंने ‘पंचमहायज्ञविधि’ एवं ‘संस्कार-विधि’ आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनके इस कार्य से देश देशान्तर में ईश्वर की सत्य उपासना विचार, चिन्तन व ध्यान-योग से युक्त उपासना पद्धति का आरम्भ हुआ।
ऋषि दयानन्द महाभारत के बाद इतिहास में प्रथम वेदज्ञ, ऋषि व महापुरुष हुए हैं जिन्होंने असत्य धार्मिक मान्यताओं व कुरीतियों का पुरजोर खण्डन किया। उन्होंने अपने जानते हुए भी अपने प्राणों को खतरे में डाला परन्तु ईश्वर की आज्ञा तथा लोगों के हित को ध्यान में रखते हुए सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व विद्या का निर्भीकतापूर्वक प्रचार किया। मूर्तिपूजा पर 16 नवम्बर 1869 को उनका काशी में देश के तीस से अधिक शीर्ष सनातनी विद्वानों से तथा लगभग पचास हजार लोगों की उपस्थिति में शास्त्रार्थ हुआ था। ऐसा शास्त्रार्थ महाभारत के बाद दूसरा नहीं हुआ। यह शास्त्रार्थ लिखित रूप में विद्यमान है। कोई भी व्यक्ति इसे पढ़कर स्वामी दयानन्द जी के वेदों पर आधारित वैदिक सिद्धान्तों की विजय का स्वयं ही आकंलन कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सभी अन्धविश्वासों व मिथ्या मान्यताओं को दूर करने के लिये सप्रमाण खण्डन किया तथा अपने पक्ष में प्रचुर प्रमाण दिये। उन्होंने ही स्त्रियों व शूद्र बन्धुओं को यजुर्वेद का प्रमाण देकर वेदों के अध्ययन व अध्यापन का अधिकार दिया। विधवाओं को आपदधर्म के रूप में पुनर्विवाह का अधिकार भी दिया। उनके विचारों से ही समाज में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित अन्तर्जातीय विवाह व स्वयंवर विवाह होना आरम्भ होने आरम्भ हुए। सरकारी नियमों में भी विवाह सबंधी आर्यसमाजों के अनेक विचारों को मान्यता मिली है। ऋषि दयानन्द के विचारों के प्रचार से ही समाज में जन्मना जातिवाद व छुआछूत को अनुचित व मानवता के विरुद्ध माना जाने लगा। यद्यपि आज भी प्रचार द्वारा इसका समूल उच्छेद आवश्यक है परन्तु ऋषि दयानन्द ने सुधार का जो मूल कार्य किया उससे वर्तमान समय में यह समस्या काफी सीमित हो गई है। इस प्रकार देश से अन्धविश्वास दूर करने सहित समाज सुधार का कार्य करने में ऋषि दयानन्द की प्रमुख व सर्वोपरि भूमिका तथा योगदान है। हम यह अनुभव करते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द न आते तो अन्धविश्वास व पाखण्ड के खण्डन व समाज सुधार का जो अपूर्व कार्य ऋषि दयानन्द व उनके प्रतिनिधि संगठन आर्यसमाज ने किया है, वह कदापि न होता और आर्य वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित न रहते।
ऋषि दयानन्द के समय में हमारा देश अंग्रेजों का दास, गुलाम व पराधीन था। देशवासियों पर अमानवीय अत्याचार, अन्याय व पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। देश की सम्पदा को लूट कर विदेश ले जाया जाता था। यहां के लोग अभावों तथा अनेक अव्यवस्थाओं में अपना जीवन व्यतीत करते व दुःख भोगते थे। देश को आजादी दिलाने की आवश्यकता थी। उनके समय 1825-1883 में देश की आजादी का न तो कहीं कोई विचार करता था न ही कोई इस निमित्त संगठन ही स्थापित व कार्यरत था। ऐसी स्थिति में अपने प्राणों को जोखिम में डालकर ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की और उसमें देश के लोगों की आत्माओं को ज्ञान प्राप्ति और उनके कर्तव्य एवं अधिकारों से परिचित कराया। उनके ग्रन्थों में स्वराज्य की कल्पना व स्वप्न लिया गया है। देश की आजादी का खुलकर समर्थन भी ऋषि दयानंद ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के संशोधित संस्करण जो उन्होंने सन् 1883 में तैयार किया, प्रस्तुत किया है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में उनके शब्द हैं ‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों (अंग्रेजों, यवनों व अन्यों) का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।’
इन पंक्तियों से पूर्व ऋषि दयानन्द ने लिखा है ‘अब अभाग्योदय से और आर्यों (तत्कालीन हिन्दुओं) के आलस्य, प्रमाद, परसपर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों (वैदिक धर्मियों) का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों (मुख्यतः अंग्रेजों) के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं।’ आजादी की प्रेरणा देने वाली उपुर्यक्त पंक्तियों के बाद भी उन्होंने महत्वपूर्ण शब्द लिखे हैं वह हैं ‘परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों (निष्पक्ष श्रेष्ठ पुरुषों) का काम (कर्तव्य) है।’ ऐसी ही देश की आजादी की अनेक प्रेरणायें हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों आर्याभिविनय, वेदभाष्य तथा संस्कृतवाक्यप्रबोध आदि ग्रन्थों में भी मिलती हैं।
अनेक विद्वानों का मानना है कि ऋषि दयानन्द के इन विचारों से ही देश को आजादी के आन्दोलन की प्रेरणा मिली। आजादी के गरम व नरम दल के प्रमुख नेता यथा पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा महादेव गोविन्द रानाडे, पुणे महर्षि दयानन्द जी के ही शिष्य थे। गांधी जी का राजनीतिक गुरु पं. गोपाल कृष्ण गोखले को माना जाता है जो स्वयं महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य व उनके विचारों से प्रभावित थे। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा जी ऋषि के साक्षात् शिष्यों में से एक थे। ऋषि दयानन्द ने सभी अन्धविश्वासों, पाखण्डों सहित सामाजिक अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध आवाज बुलन्द की व उनका डटकर विरोध किया। उनके अनुयायियों ने भी ऐसा ही किया। समाज सुधार का जो कार्य उन्होंने किया, वैसा व उस मात्रा में वह कार्य अन्य किसी महापुरुष के द्वारा नहीं हुआ। देश की आजादी व स्वतन्त्रता का विचार देने के कारण ऋषि दयानन्द की अग्रणीय व प्रमुख भूमिका है। देश के नेताओं व विद्वानों निष्पक्ष होकर उनका उचित मूल्यांकन नहीं किया है। हम समझते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द वेदप्रचार, अन्धविश्वास व पाखण्ड खण्डन सहित समाज सुधार के कार्य न करते और देश को आजादी का मन्त्र न देते, तो न तो देश स्वतन्त्र होता और न ही समाज का वर्तमान आधुनिक स्वरूप जो पाखण्ड व अन्धविश्वासों से काफी कुछ मुक्त है, देखने को न मिलता। ऋषि दयानन्द ने देश व मनुष्य समाज की उन्नति के वह सभी काम किये जो करणीय थे। उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे देश व मनुष्यों की किसी प्रकार भी किंचित हानि हो सकती थी। अपने धर्म प्रचार, समाज सुधार, अन्धविश्वास उन्मूलन, देशहित व मानव जाति की उन्नति के कार्यों के कारण ही वह अपने विरोधियों के षडयन्त्रों का शिकार हुए जिसका परिणाम दीपावली 30 अक्टूबर, 1883 को उनकी मृत्यु के रूप में हमारे सामने आया। यदि वह कुछ समय और जीवित रहते तो वैदिक धर्म एवं मानवता के उद्धार का कहीं अधिक कार्य करते। हम ऋषि दयानन्द को श्रद्धांजलि देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य