जाने कितनी दफा ?
जाने कितनी दफा ही द्वार खुले होंगे, शायद हरिवंश राय बच्चन जी ने कहा–
“याद मुझे है वह दिन पहले,
जिसदिन तुझको प्यार किया;
तेरा स्वागत करने को जब
खोल हृदय का द्वार दिया !”
….तो यह भी कहा–
“मन-मन्दिर में तुझे बिठाकर
तेरा जब सत्कार किया;
झुक-झुक तेरे चरणों को जब
चुम्बन बारम्बार किया !”
….तो यह भी–
“पर जब उनकी वह प्रतिभा,
नयनों से देखी जाकर;
तब छिपा लिया अंचल में,
उपहार हार सकुचाकर !”
तो फिर के लेखनबद्ध यह–
“घर से यह सोच उठी,
उपहार उन्हें मैं दूंगी;
करके प्रसन्न मन उनका,
इनकी शुभाशीष लूँगी !”
सीत जी ने यह प्रसंगश: उड़ेली है कि दो जिम्मेदार लोग आपस में प्यार नहीं करते हैं, अपितु सिर्फ़ जिम्मेदारी निभाते हैं ! अंत में मेरी राय है कि संकीर्ण, अतार्किक और अवैज्ञानिक लोगों से मित्रता मत कीजिये, वे कमीने होते हैं और आपको पटकने के मौके तलाशते हैं !