जिंदगी रेडीमेड परिधान नहीं है !
हिंदी फिल्म ‘सूई-धागा’ और श्रीमती अनुष्का शर्मा । अभिनेत्री अनुष्का शर्मा और अभिनेता वरुण धवन अभिनीत फिल्म ‘सुई -धागा’ देखा ! वाकई बेहतरीन फ़िल्म है। ऑनलाइन अखबार मेकिंग इंडिया ने अच्छा ही लिखा है, यथा- रेडीमेड और ब्रांडेड कपड़ों के इस दौर ने किस तरह हमारे ट्रेडिशनल बुनकरों, रंगदारों और दर्जियों सहित वस्त्र उद्योग से जुड़े तमाम परिवारों को मजूबर और लाचार बना दिया है, इसका एहसास होता है। एक समय था, जब परिवार भर के कपड़े कोई पारिवारिक दर्जी ही सिलता थे, जिसकी सिलाई, बुनाई सब एकदम पक्का और टिकाऊ काम होता था, और तब कपड़े लक्ज़री आइटम नहीं होते थे, कुछेक खास पर्वो में ही परिवार भर के कपड़े बनते थे, बाकी जिसका जन्मदिन हो उसके लिए अलग से कुछ कपड़े आ जाते थे, पर फिर भी कपड़े सबके पास पर्याप्त होते थे, किन्तु रेडीमेड कपड़ों के इस दौर ने कपड़ो को भी लक्ज़री आइटम बना दिया है। आज स्थिति यह है कि अधिकांश लोग लगभग हर महीने या महीने में दो बार कपड़े खरीदते ही हैं। आम इंसान तक का यह हाल है कि एक बार सार्वजनिक अवसर पर पहने हुए कपड़े उसे दुबारा पहनने पर शर्म आती है, तो कुछ ऐसे भी लोग है जो खास अवसरों के लिए कपड़े खरीदते ही नहीं, ये लोग हर पार्टी – फंक्शन के लिए किराए पर कपड़े – गहने सब ले लेते हैं, जिससे इनको ऐसा लगता है कि ये लोग फैशन के रिपीटीशन से बच गए, लेकिन इन सबमें मारा जाता है आम आदमी, और लोकल उद्योग। ब्रांडेड कपड़े की चाहत में हम लोकल टेलर से कपड़े न सिलवाकर किसी बड़े शोरूम, बुटीक सेंटर आदि से कपड़े लेते हैं विदेशी लेबल देखकर, या नामी कम्पनी का लेबल देखकर, जबकि सच यह है कि उन ब्रांडेड कम्पनियों और बुटिक्स में भी यही पारम्परिक दर्जी, बुनकर, रंगदार महीने की पगार पर काम करते है, प्रतिभा इनकी – नाम दूसरे का ! फर्क यह है कि लोकल दर्जी जो कपड़ा 500 से 1,000 रुपये में सिलता है, उसी की बाज़ार कीमत 5 -7 हज़ार देकर हमें यह विश्वास हो जाता है कि हमने अच्छा माल खरीद लिया।
जन्मजात प्रतिभा है, क्षमता है, पर क्योंकि डिग्री नहीं इसलिए कद्र नहीं… सही ही तो है प्रतिभा की हमारे यहां कद्र ही नहीं… यही स्थिति, इसी भेद को मैं लोकल सोनार और तनिष्क जैसे ब्रांडेड गोल्ड में भी पाती हूँ। देखा जाए तो सभी तरह के पारंपरिक व्यवसायों को हमारी इसी बनावटी-दिखावटी सोच ने धीरे-धीरे खत्म किया है। कम्पनियां इनकी प्रतिभा को 8 -10 हज़ार रुपये महीने की पगार देकर अपने नाम से भुना लेती है और अरबों का व्यापार कर जाती है। यह फ़िल्म वस्त्र उद्योग के ट्रेडिशनल कर्मचारियों से सम्बंधित ज़रूर है, पर ब्रांड के शौकीन हर इंसान को आइना दिखाती है। गांधी जी ने आखिर क्यों ‘स्वदेशी आंदोलन’ शुरू किया होगा, यह विस्तार से सोचने की ज़रूरत है। आम इंसान की ज़िंदगी के संघर्षों को बहुत खूबसूरती से पर्दे पर उतारा गया है। वरुण धवन का अभिनय इतना यथार्थपरक है कि कई बार आंखे भर आती हैं… अनुष्का शर्मा सहित सबका अभिनय काबिलेतारीफ है। कहानी भी दमदार है, एकदम नए कॉन्सेप्ट के साथ, फ़िल्म कहीं भी बोर नहीं करती ! इसप्रकार से अप्रतिम समीक्षा के लिए ‘मेकिंग इंडिया’ धन्यवाद के पात्र हैं।