कविता

बादल राग

एक बादल उड़ा और पहुँच गया चाँद के पास,
उसने चाँदनी को पाया अपनी रूह से गुज़रते हुए,
बहुत देर तक बजती रहीं छोटी-छोटी घंटियाँ
जैसे कोई प्रेयसी प्रवेश करती है अपने मंदिर में!
उसने देखा चाँद की आँख में छिपे
आँसुओं के झरने को,
उसने सुना चाँद की आत्मा में
जलतरंग पर बजता हुआ कोई उदास राग,
वह भर लेना चाहता था चाँद को अपने आगोश में;
पर चाँद बहुत दूर था बादल के लिए!
उसने घबराकर नीचे देखना चाहा धरती को,
धरती कहीं नहीं थी बादलों की भीड़ में।
वह पल भर में पसीजा
और हो गया पानी।
चाँद अब भी था, बादल का पता नहीं!
— राजेश्वर वशिष्ठ