भारत में राष्ट्रभाषा का प्रश्न और हिंदी
हर राष्ट्र की अपनी एक राष्ट्रभाषा होती है इसलिए भारत जैसे सम्प्रभुता सम्पन्न, विशाल, सबसे बड़े गणतन्त्र राष्ट्र की भी अपनी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। यह प्रश्न तब तक उठना स्वाभाविक और उचित भी है जब तक भारत की अपनी राष्ट्रभाषा न चुन ली जाए। लेकिन आजादी के सात दशकों के बाद भी दुर्भाग्यवश अब तक ऐसा नहीं हो सका।
ब्रितानी हुकूमत के समय में हिंदी का पूरे भारत में बोलबाला था। लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटेन में हिंदी की व्यापकता और लोकप्रियता को लेकर कई बार ऐसी बातें स्वीकार की थी, पार्लियामेंट में रखी थी। मैकाले ने अपने अध्ययन में यह महसूस किया था कि भारत को यदि और अधिक समय तक गुलाम बनाकर रखना है तो यहाँ की प्रतिष्ठित शिक्षा पद्धति को बंद करना होगा और किया भी। मैकाले के अनुसार, संस्कृत को समाज से दूर और हिंदी को असभ्य/अनपढ़ों की भाषा के रूप में व्यवहृत करना होगा जिससे अंग्रेजी जानने वाले क्लर्क पैदा किये जा सकें। भारत की प्रायः समस्त भाषाएँ संस्कृत से पैदा हुई हैं और इसमें सबसे बड़ी और व्यापक भाषा हिंदी है। इसलिए समस्त भारतीय भाषाएँ हिंदी से कमोबेश सम्बंधित हैं। भारत में अंग्रेजी शासन के प्रति विद्रोह और जनक्रान्ति में हिंदी की भूमिका अग्रणी रही है। आजादी के समर में चाहे नारों की बातें करें या साहित्य की, हिंदी का ही सर्वाधिक योगदान रहा है। न केवल मध्य भारत बल्कि आज का बांग्लादेश, पाकिस्तान, दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत भी हिंदी के प्रभाव में था।
देश को बाँटने की कुत्सित योजना ने हिंदी भाषा के समक्ष अन्य भाषाओं को विरोधी बनाकर उतारने की चेष्टा की। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत के कुछ नेता क्षेत्रीय राजनीति की रोटी भाषाओं के तवे पर सेंकने लगे। आजादी के उपरान्त संविधान में एक राष्ट्रभाषा की आवाज तो उठी किन्तु अंग्रेजी परस्त सत्तालोलुप लोगों ने क्षेत्रीय भाषा- भाषियों को भड़काकर अंग्रेजी की जड़ें मजबूत कीं। हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाकर राजभाषा तक सीमित रखा गया और लॉलीपॉप दिया गया कि अंग्रेजी सहायक भाषा बनकर रहेगी और 1965 तक हिंदी को व्यापक बनाकर राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। अनुच्छेद 343/1 में देवनागरी लिपि में हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया गया। उसके बाद हिंदी को इतनी ही इज्जत मिली कि इसकी गिनती भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भारतीय भाषाओं में एक भाषामात्र की है। एक अन्य संशोधन के अनुसार राज्य सरकारें अपनी पसंद की भाषा में कामकाज संचालित करने के लिए स्वतन्त्र होंगी जबकि राजभाषा अधिधियम 1963 में यह व्यवस्था की गई कि सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया जाएगा। आज की सच्चाई है कि सहायक भाषा ने राजभाषा को मजदूरों, अशिक्षितों, पिछड़ों और असभ्यों की भाषा बनाकर रख दिया है। अंग्रेजी परस्त लोगों के भीतर अंग्रेजियत मानसिकता और कूटनीति कूट-कूटकर भरी थी। ये काली चमड़ी वाले अंग्रेज आजाद भारत को भी अंग्रेजी और गैर अंग्रेजी के स्तरीकरण के रूप में बनाये रखना चाहा। अंग्रेजी को स्वामित्व के रूप में भारत में कायम रखना चाहा।
हिंदी के सिर पर अंग्रेजी को बैठाने का ही नतीजा है कि बच्चों की प्रथम पाठशाला की संज्ञा प्राप्त पारिवारिक ढाँचा पल- प्रतिपल बिघटित हो रहा है। माँ को मॉम, बापू को डैड, पति को हस्बैंड और चाचा, ताऊ, मामा, फूफा जैसे दर्जनों रिश्तों को एक “अंकल” में भर दिया। बुआ, चाची, ताई, जैसी नारियाँ “ऑंटी” में खपाई गईं। बचे खुचे रिश्ते “इन लॉज” हो गए। हिंदी की शुचिता पर अंग्रेजी ने छककर विष वमन किया और हम अलादीन के जादुई चिराग की बाट जोहते रह गए। हिंदी अपने ही घर में गौण हो गई।
अपने संविधान लागू होने के सत्तर वर्षों के बाद भी हम मैकाले के रास्ते पर खुश होकर चल रहे हैं और उसको भला-बुरा भी कह रहे हैं। लकीर के फकीर बनकर लाठी पीट रहे हैं जबकि साँप कब का जा चुका है और हम यह भली भाँति जानते भी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो साँप देश की आस्तीन में घन बनाकर फुँफकार रहे हैं और हम कस्तूरी-मृग की तरह यहाँ- वहाँ खोज रहे हैं। भारतेन्दु युग के जनक महाकवि भारतेन्दु जी ने कहा है कि –
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।”
हमने इस पर कभी गम्भीरता से विचार ही नहीं किया जबकि हमारे पड़ोसी चीन और जापान “निज भाषा” पर दृढ़ता से कायम होकर विकास में हमसे बहुत आगे हैं।
हमारे देश का तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग अंग्रेजी का कट्टर समर्थक है। ये काली चमड़ी वाले अंग्रेज हैं जो असल अंग्रेजों से भी अधिक खतरनाक हैं। देश के आम लोग इनको खास मानते हैं और ये तथाकथित खास लोग अंग्रेजी के 26 वर्णों की बदौलत भारत के अन्य लोगों को बौद्धिक गुलाम बनाना चाहते हैं। इनका अहंकार किसी फिरंगी वायसराय से कम नहीं होता। जोंक सरिस ये लोग देश में अंग्रेजी और गैर अंग्रेजी के आधार पर दो वर्ग बनाए रखना चाहते हैं। स्वयं को प्रमुख और अन्य को गौण बनाए रखना चाहते हैं जिससे इनका स्थान सदैव आरक्षित रह सके। गैर भाषी अधिकाधिक जनसंख्या मुट्ठी भर कुटिल पाखंडियों से अपना हिस्सा न माँग सके। इनके समक्ष प्रतिभागी न बन सके।
हिंदी दुनिया में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा बन गई है। कई देशों ने अपने विद्यालयों/ विश्वविद्यालयों में शामिल किया हुआ है। कम्प्यूटर शिक्षा में संस्कृत और उसके तदनन्तर हिंदी वैज्ञानिकता की कसौटी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसकी लिपि देवनागरी, दुनिया की सबसे वैज्ञानिक और विशुद्ध लिपि है और इसका लोहा दुनिया मानती है, बस हमारे देश के चंद तथाकथित बुद्धिजीवियों को छोड़कर। जबकि सर्वविदित है कि विदेशी भाषा के मोह और अतिशय अधिकार ने कई प्रतिभाओं को स्वयं को सिद्ध करने से चीनी दीवार की तरह रोक रखा है।
अब इस विषय में अहम सवाल बनता है कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या हो? किसी बहुभाषी देश में राष्ट्रभाषा का चयन करते समय कुछ खास मानकों पर ध्यानाकर्षण आवश्यक है। जैसे कि उस भाषा का सुस्पष्ट व्याकरण एवं सुलेखकीय लिपि हो, सर्वाधिक लोगों द्वारा व्यवहृत हो, प्रचुर मात्रा में समृद्ध साहित्य हो, अन्य भाषाओं से सम्बद्ध हो, विशाल शब्दकोश हो एवं भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप विकास की सम्भावनाएँ हों। भारत में हिंदी भाषा इन मानकों पर खरा उतरती है अतएव यह राष्ट्रभाषा की सबसे प्रबल दावेदार थी और आज भी है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की राष्ट्रभाषा और हिंदी भाषा एक दूसरे के पर्याय हैं। अन्ततः हम कहना चाहेंगे कि-
जय हिंदी जय हिंद यशस्वी, हिंदी भाषा की जय हो।
हिंदी बने राष्ट्रभाषा तो, भरत भूमि मंगलमय हो।।
— डॉ अवधेश कुमार अवध