व्यंग्य- चेलाराम चंटेश
एक वैवाहिक समारोह में एक नवयुवक मेरे पास आया.मुझे पहचानते हुए मुस्कुराया-सर, आप कवि कमलेश द्विवेदी है न? मैंने कहा-हाँ.यह सुनते ही उसने मेरे पैर छुए.बोला-सर, आज तो हम धन्य हुए.हम भी थोड़ी-बहुत कविता लिखते हैं.अपने दोस्तों को सुनाते हैं.उनके बीच हम “कवि चंटेश” के नाम से जाने जाते हैं.आपको दो-चार कार्यक्रमों में सुना है.आप तो बहुत अच्छा गाते है.टीवी पर भी आते हैं.सुना है आप मार्गदर्शन भी देते हैं.बदले में कोई फीस भी नहीं लेते हैं.सर, मुझे भी आपका मार्गदर्शन चाहिए.मैंने मुस्कुराते हुए कहा-ठीक है, कभी घर आइए.उसने तुरंत मेरा फोन नंबर लिया.अपने मोबाइल में फीड किया.
अगले संडे को ही कुर्ता-पाजामा पहने हुए चंटेश जी मेरे दरवाजे पर खड़े थे.हाथ में एक मोटी सी डायरी पकड़े थे.पैर छूकर उन्होंने मुझे डायरी थमाई.मैंने सरसरी नज़र दौड़ाई-पूरी डायरी में उन्होंने गद्य में की थी कविताई.मैंने पूछा-भाई,गीत-ग़ज़ल-छंद से भी आपका कुछ वास्ता है? वो बोला-हाँ सर, थोड़ा-बहुत पता है-जब किसी कविता में पहली लाइन थोड़ी-थोड़ी देर में दोहराई जाती है तो वो गीत कहलाती है.जब पहली लाइन दो-तीन बार गाकर दूसरी लाइन सुनाई जाती है तो वो ग़ज़ल होती है.जब एक ही लाइन दस-पंद्रह बार गायी जाती है तो वो क्लासिकल होती है.पर मुझे आनंद इसी में आता है, जैसा मैंने डायरी में लिखा है.वैसे भी सर, मैंने तो यह सुना है कि कवि तो निर्भय होकर अपने मन की बात कविता में कहता है.कवि किसी बंधन में बँधकर नहीं रहता है.मैंने कहा-भाई, आपने पाजामा भी पहना है.उसमें नारा भी बाँधा होगा.वो बोला-अरे सर, आप भी मज़ाक करते हैं.अगर हम नारा नहीं बाँधेंगे तो क्या अपनी बेइज़्ज़ती कराएंगे.पाजामा नीचे खिसक जाएगा, लोग हमारी हँसी नहीं उड़ाएंगे.इसलिए नारे का कसाव जरूरी है.मैंने कहा-भाई, इसी तरह से कविता में भी कुछ बंधन जरूरी है, कुछ भाव जरूरी है.कुछ भी लिख देने से कविता नहीं हो जाती है.कल्पना और विचारों की तारतम्यता ही कविता कहलाती है.वो बोला-सर, हम ये सब समझ जाएंगे.बस हमें अपना चेला बना लीजिए.आपका नाम रौशन करके दिखाएंगे.एक बार मंच पर चढ़ा कर देखिए, फिर कभी आप हमें उतार नहीं पाएंगे.आई मीन-हम कहीं भी आपकी नाक नहीं कटवाएंगे.हर जगह झंडे गाड़ कर आएंगे.
खैर, वो संडे-संडे आने लगा.ह्वाट्सएप पर भी कविता भेजकर सही कराने लगा.गीत-ग़ज़ल भी लिखने लगा, गाने लगा.मेरे साथ कवि गोष्ठी और कवि सम्मेलन में भी जाने लगा.थोड़ा-बहुत पेमेंट भी पाने लगा.धीरे-धीरे जनाब अपने लिफाफे की तुलना मेरे लिफाफे से करने लगे.जिन कार्यक्रमों मैं अकेले जाता था, वे कार्यक्रम उन्हें अखरने लगे.इन्हीं परिस्थितियों के चलते एक दिन वे बेचारे इतने मजबूर हो गये कि मेरा साथ छोड़कर मुझसे दूर हो गये.
आज के अख़बार में उन्हीं का इंटरव्यू पढ़ रहा हूँ-
पत्रकार- च॔टेश जी, सुना है कि कमलेश द्विवेदी जी आपके आरंभिक काव्य गुरु थे.उन्होंने ही आपको लिखना-पढ़ना सिखाया था.यहाँ तक कि पहली बार उन्होंने ही आपको मंच पर बैठाया था.
चंटेश जी-अरे नहीं, काव्य प्रतिभा तो जन्मजात होती है.आचार्य मम्मट भी यही बताते हैं-हम अध्ययन और मनन से इस प्रतिभा में प्रवीणता पाते हैं.यह किसी के सिखाने से नहीं आती है.कविता तो आह से उपजती है, वाह तक पहुँच जाती है.इसी बात पर हमें पंत जी याद आते हैं, जो अपनी कविता में गाते हैं-वियोगी होगा पहला कवि/आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आँखों से चुपचाप/बही होगी कविता अंजान.हाँ, जहाँ तक कमलेश जी की बात है तो हम बताना चाहेंगे कि शुरुआती दौर में हम उनके कार्यक्रमों में चले जाते थे.वो सीनियर थे तो हम उनकी बात टाल नहीं पाते थे.पर उनके कार्यक्रम बहुत लो लेवल के होते थे, इसलिए धीरे-धीरे उनसे मुँह मोड़ना पड़ा.कमलेश जी को यह अच्छा नहीं लगा तो हमें उनका साथ छोड़ना पड़ा…
पूरा इंटरव्यू ऐसे ही साहित्यिक ज्ञान से सजा-सजाया था.सच कहूँ तो “चंटेश” का सही अर्थ आज मेरी समझ में आया था.
— डॉ. कमलेश द्विवेदी