पीआईएल, आरटीआई और….
क्या ‘वकील’ उस्तरे होते हैं, जिनकी एक धार ‘वादी’ को मुड़ने के लिए होती है, तो दूसरी धार ‘प्रतिवादी’ को ? ….तो फिर सेवाभाव कहाँ गयी ?
एक केस है, भाई विदुर ! मैं फीस के लिए पैसे नहीं दे पाऊँगा, हाईकोर्ट का केस है, अगर सम्भव है तो कहना, भाई ! कब मिलूँ, आपसे ?
PIL नहीं है, PSC के विरुद्ध है ! मेरे जो आय है, वो खा-पीकर, पत्र-पत्रिकाएँ खरीदकर और जनहित के लिए अबतक 22,000 से अधिक RTI लगाने से बचत शून्य हो जाते हैं, इसलिए फीस नहीं दे पाऊँगा, भाई ! कहिये, कब आऊँ ?
तो क्या अब ?
खाना छोड़ दूं क्या ?
पढ़ना छोड़ दूं क्या ?
सेवा छोड़ दूं क्या ?
अज़ीब परामर्श देते हैं, भाई !
मानसिक बीमारी का सुझाव दे रहे हैं क्या ?