ग़ज़ल
हम खुशियों का बाग लगानेवाले थे
अंगारों को फूल बनानेवाले थे।
कहीं रोक ना ले कोई चौराहे पर
नज़र बचाकर सबकी जानेवाले थे।
वो हमको आवाज़ लगाना भूल गये
जो हमको ही गले लगाने वाले थे।
वो उलझे दुनियाँ के गोरखधंधों में
जो सेवा कर पुण्य कमानेवाले थे।
चिता की लपटों में से गुड़िया पूछ रही
क्या बिटियों को यही पढ़ाने वाले थे?
चलो तलाशें नारायण को कुटियों में
जो दरिद्र को भोग लगानेवाले थे।
क्यों सरहद पर हमें हरारत लगती है?
आप बरफ़ को सर्द बतानेवाले थे।
अब सारी दुनिया ही काली लगती है
ये अंधे तो हरा दिखानेवाले थे!
हम भैसों को बीन सुनाते रहते हैं
‘शरद’ चैन की हंसी बजानेवाले थे।
— शरद सुनेरी