सहेज कर रखा जिन को वो,अजनबी होते क्यों रिश्ते।
टूट कर पात से बिखर जाएं मतलबी होते क्यों रिश्ते।
दिल के जज्बात समझे न, कयामत ढाती नादानियां,
चले दो कदम हाथ थाँमें, प्रतिवादी होते क्यों रिश्ते।
वो मिले थे शहर अपनें में, दिल लूट कर ले गए जानी,
न घर के रहे न घाट के, दिल्लगी से होते क्यों रिश्ते।
वो लुट कर ले गया भरे ख्वाब, मेरी उम्र भर के लिए,
कयामत मुहब्बत पर ढाते, ग़ज़नवी होते क्यों रिश्ते।
दूर से देखा तो नजदीकियां, मुहब्बत में बदलने लगी,
पायदान पर आत आते, आरामतलब होते क्यों रिश्ते।
बहुत दिनों के बाद मिला तो, लगा कहीं देखा सा है।
मुंह मोड़ के चल दिए इतने, बेअदबी होते क्यों रिश्ते।
— शिव सन्याल