लघुकथा

लघुकथा – मुआवजा

             बोधनराम को सौ चक्कर लगाने के बाद आखिर आज पचास हजार रुपये का मुआवजा मिला। साथ आये उसके जीजा जी उसके हाथों में इतने रुपये देखकर खुश हो रहे थे कि बोधन अपनी बहन को भी कुछ रुपए तो देगा ही।
           कुछ महीने पहले भादो की एक रात को महानदी के तट पर बसे गांव में भयानक बाढ़ के चलते बोधन की झोपड़ी पूरी तरह ढह गई थी। इसी के मुआवजा के लिये उसके जीजा ने एक वकील भी किया था ताकि उसे समय पर मुआवजा मिल सके।
          बोधन के हाथों में पचास हजार रुपये की गड्डी देखते ही वकील ने अपनी फीस दस हजार रुपए तुरंत वसूल ली। अभी वो उस दफ्तर से बाहर निकल ही रहा था कि दफ्तर के बड़े बाबू ने उससे व्यंग्यात्मक लहजे से कहा,-“कैसे जी बोधन बाबू, पैसे मिलते ही हमें भूल गए? अरे!भई, हमने इतनी मेहनत की है। कुछ हमें भी तो मिलना चाहिए।”
          बोधनराम ने मुस्कुराते हुए बड़े बाबू को दो हजार रुपए दे दिए। तभी बड़े साहब का उसे बुलावा आ गया। वह बड़े साहब के केबिन में घुसा कि बड़े साहब ने  मुस्कुराते हुए  बड़े मीठे स्वर से कहा,-” बोधनराम जी, रुपए मिल गए न?, इस मुआवजे के लिए हमने ऐड़ी -चोटी का जोर लगाया था।वरना तुम्हारी गाय-बैल रखने की उस झोपड़ी के इतने पैसे थोड़े न मिलते? कुछ तो हमारा हक भी बनता है न?”
        उसने बिना कुछ कहे साहब के हाथों में दस हजार रुपये रख दिये।
         बोधन के जीजाजी  पूछ रहे थे-“अरे! तुम्हारे तो आधे पैसे इन लोगों को मुआवजा देने में निकल गये।तुम्हें कितना मुआवजा मिला?”
        बोधनराम ने हँसते हुए कहा,”ओह! जीजा जी, इन सबको कौन अपनी जेब से रिश्वत दे रहा हूँ? मुफ्त का सरकारी मुआवजा मिला है फिर गाय -बैल रखने की उस झोपड़ी के इतने पैसे मुझे मिल गए । यही बहुत है।”
       यह सुनकर जीजा जी बोधनराम का मुँह ताकते रह गए।
—  डॉ. शैल चन्द्रा

*डॉ. शैल चन्द्रा

सम्प्रति प्राचार्य, शासकीय उच्च माध्यमिक शाला, टांगापानी, तहसील-नगरी, छत्तीसगढ़ रावण भाठा, नगरी जिला- धमतरी छत्तीसगढ़ मो नम्बर-9977834645 email- [email protected]