ग़ज़ल
दिन की है कभी और है कभी रात की चिंता,
इस बात को छोड़ा तो है उस बात की चिंता।
ठंड से ठिठुर रहे हैं शेष गर्मियां भी है,
फिर भी तो लोग कर रहे बरसात की चिंता।
ख़ुद में ही मगन हैं सभी, हैं भावशून्य भी,
किसको है किसी के यहां जज़्बात की चिंता।
लिखना है ग़ज़ल और उन्हें पढ़ना है मंच, पर,
शायरी नहीं है और न ख़्यालात की चिंता।
बीते को छोड़ हो शुरू आगे का सिलसिला,
मत कीजिए गुज़रे हुए लम्हात की चिंता।
अपने कहां अपने रहे मतलब का दौर ‘जय’,
सबको है अपने आप के हालात की चिंता।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’