टेसू झांझी का प्रेम विवाह
यह तो नहीं मालूम कि टेसू और झेंझीं के विवाह की लोक परंपरा कब से पड़ी पर यह अनोखी, लोकरंजक और अद्भुत परंपरा बृजभूमि को अलग पहचान दिलाती है,जो बृजभूमि से सारे उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक गांव गांव तक पहुंच गई थी जो अब आधुनिकता के चक्कर में और बड़े होने के भ्रम में भुला दी गई है . यह लोकजीवन में प्रेम कहानी के रूप में प्रचारित हुई थी. एक ऐसी प्रेम कहानी जो युद्ध के दुखद पृष्ठभूमि में परवान चढ़ने से पहले ही मिटा दी गई.यह महा पराक्रमी भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की कहानी है जो टेसू के रूप में मनाई जाती है.
शादी का यह उत्सव विजयादशमी के दिन से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा को शादी सम्पन्न हो जाने के साथ ही समाप्त हो जाता है.
एक दौर था जब दशहरा पर रावण के पुतले का दहन होते ही, बच्चे टेसू झेंझीं लेकर निकल पड़ते थे और द्वार द्वार अड़ता रहा टेसू, नाचती रही झेंझी : – ‘टेसू गया टेसन से पानी पिया बेसन से…’, ‘नाच मेरी झिंझरिया…’ आदि गीतों के साथ नेग मांगते थे .
हर साल कोई एक परिवार झेंझीं के लिए जनाती बनता और एक परिवार टेसू की तरफ से बराती. कुछ इलाकों में शरद पूर्णिमा के दिन बृहद स्तर पर आयोजन होते थे. गांव ट्रैक्टरों से बारात निकलती थी शहर में रथ व कारों के काफिले की बारात होती थी. लोग यह भी मानते थे कि अगर किसी लड़के की शादी में अड़चन आ रही है तो तीन साल झांझी का विवाह कराए, लड़की की शादी में दिक्कत आ रही है तो टेसू का विवाह कराने का संकल्प लेते थे. इसके बाद शरद पूर्णिमा को झांझी की शोभायात्रा निकाली जाती थी.
समय के साथ बदलाव आया है पुरानी परंपराएं समाप्त हो रही हैं. किवदंती हैं कि भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को महाभारत का युद्ध देखने जाते समय झांझी से प्रेम हो गया. उन्होंने युद्ध से लौटकर झांझी से विवाह करने का वचन दिया, लेकिन अपनी मां को दिए वचन, कि हारने वाले पक्ष की तरफ से वह युद्ध करेंगे के चलते वह कौरवों की तरफ से युद्ध करने आ गए और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया. वरदान के चलते सिर कटने के बाद भी वह जीवित रहे.युद्ध के बाद मां ने विवाह के लिए मना कर दिया. इस पर बर्बरीक ने जल समाधि ले ली. झांझी उसी नदी किनारे टेर लगाती रही लेकिन वह लौट कर नहीं आए.
एक तरफ”टेसू अटर करें, टेसू मटर करें, टेसू लई के टरें… गाते हुए लड़कों की टोली दूसरी ओर झांझी के विवाह की तैयारियों में जुटी बच्चियां झेंझीं गीत गातीं . लड़के प्रयास करते कि शादी से पहले झेंझी की एक झलक किसी भी प्रकार से टेसू को मिल जाएं,पर मजाल क्या की लड़कियां यह सब होने देतीं. दशहरा मेला में लड़कियां झांझी और लड़के टेसू के नाम की मटकी खरीदकर लाते थे. झांझी को कन्या के रूप में और टेसू को राजा के रूप में रंग कर टेसू वाली मटकी में अनाज भर कर एक दीया जलाते थे और घर घर जाकर अनाज और चंदा इकट्ठा करते थे. लोग बच्चों को इस आयोजन में खुले दिल से सहयोग करते और विवाह की रात पूरा साथ देते थे.सामाजिक सद्भाव का यह एक उदाहरण था. हर घर का अनाज और पैसा एक साथ मिलकर एक हो जाता है. न कोई ऊंचा न कोई नीचा .गांव के बड़े लोग शामिल होते थे. कुछ लोग बराती बनते थे, कुछ लोग जनाती. फिर दशहरा से लेकर चतुर्दशी तक तैयारी चलती थी.
रात में स्त्रियां और बच्चे इकट्ठा होते नाच गाना करते थे. बरात आती थी. खील, बताशे, रेवड़ी बांटी जाती थी.आतिशबाजी होती और फिर अंगले वर्ष के लिए यह समारोह चला जाता.
समय के साथ साथ समाज में परिवर्तन होते रहते हैं और विकास की हौड़ में हम बहुत कुछ वो खो बैठ रहे हैं जिनमें हमारी खुशियां थी.
जो दौर गुजर गया ठीक है उस दौर में हमारे पास कुछ कम था पर खुशियां अपार थी. इसका अहसास जब होता है जब हम अपने मूल में वापस होने की राह पर होते हैं.