आडंबर ‘संस्कृति’ को नष्ट करता है !
देश सिर्फ ‘पति’ और ‘पत्नियों’ से ही निर्मित नहीं है । देश में उम्रदराज कुँवारी कन्या भी है, तो कम उम्र की विधवा भी ! आप इनकी स्थितियों को नजरअंदाज़ कर रहे हैं । उम्रदराज़ कुँवारी और कम उम्र की विधवाओं के विवाह कैसे हो पाएगी, इनमें आप सबकी दिलचस्पी नहीं है ? आपको तो सिर्फ अपनी पत्नियों को उपवास रखवाकर खुद की उम्र बढ़वाना है, यही न ! इधर ही ये बहनें एक महापर्व में कई दिन उपवास रही थीं, आप तो रहे नहीं! दरअसल, सिर्फ इन महिलाओं को ही पति की उम्र बढ़ाना, बच्चों और घर-परिवारों की सुख-समृद्धि की व्यवस्था करवाना ही एकल जिम्मेदारी बची है, क्यों? जहाँतक इस ‘पति पर्व’ में आस्था की बात है, तो स्पष्ट करना चाहूँगा, यह स्वार्थबद्ध आस्था के सिवाय और कुछ नहीं है ! आप अगर अपने भाई का ससुराल जाएंगे, तो आपको उतना मान-सम्मान नहीं मिलेगा, जितना की आपके भाई को मिलेगा !
कोई भी आस्था स्वार्थी नहीं हो सकता!
हम देश की संस्कृति की बात करते हैं, किन्तु भारतीय संविधान अंतर्गत ‘कर्त्तव्य’ में नव सृजन, अन्वेषण व वैज्ञानिक प्रगति की बात लिखा है, नील आर्मस्ट्रॉन्ग व चंद्रयान-2 के बाद तो ‘चाँद’ को निहार कर किस ‘विज्ञान’ का उन्नयन कर रहे हैं, जब हम जान रहे हैं कि चाँद सिर्फ एक पिंड है, जहाँ गड्ढ़े, खाई, पहाड़ इत्यादि हैं । जब हम अपने किताबों में इन चीजों का अध्ययन कर रहे हैं, तो फिर ‘आस्था’ को कहाँ ठहराएं ? कुछ चीजों के कारण हमारी सोचने की शक्ति खत्म न हो जाय ! धर्म का अर्थ जो हम कर रहे हैं, वो नहीं है। हम ऐसे पत्नियों के परिवार को जान रहे हैं, जो सालो भर सास-ससुर की गालियाँ देती रहती हैं, कम कमानेवाले पति को तो ‘कोढ़ी’ होने का अभिशाप देती रहती हैं और एक दिन पति के लिए कथित ‘पति पर्व’ करती है; तो सास, ससुर को उस दिन ही सिर्फ पैर पूजती है, अन्यथा दिन यही लिए रट लगाती है कि बुढ़वा और बुढ़िया मरते क्यों नहीं हैं?
धर्मावलम्बी होने का मतलब यह नहीं है कि हम दकियानूसी व अंधविश्वास को भी अमल में लाते रहूँ ! हम भ्रष्टाचार में डूब कर धर्मावलम्बी नहीं हो सकते ! मैंने अपने कई सगे-संबंधियों को देखा है, वो कर्ज लेकर ‘पर्व-त्योहार’ मनाते हैं, किन्तु सालोभर बाद भी कर्ज वापस नहीं कर पाते हैं !