विशुद्ध आस्था
विशुद्ध प्रकृति-पूजा है ‘छठ’ ! कवयित्री विश्वफूल के प्रसंगश: महान लोक आस्था व सूर्योपासना का पर्व ‘छठ’ यानी प्रकृति पूजा शाकाहार, आरवाहार, फलाहार इत्यादि आधारित पर्व है ।
हम इस पर्व की आस्था, अनास्था या जनमानस से उपजे गल्प या किसी प्रकार की सही पौराणिकता के ऊहापोह व मरीचिका में न आगोशित हो, इनकी वैज्ञानिकता पर जाते हैं।
बारिश और बाढ़ के बाद असंख्य संख्या में आए कीड़े-मकोड़े हेतु पूर्ण अंधकार व अमावस्या में दीप जलाकर कीट-पतंग व मच्छरों को भगाने के तत्वश: विज्ञानसम्मत पर्व दीपावली के अगले दिन पशु-प्रेम के प्रासंगिक मवेशी की पूजा यानी गोबररूपी धन लिए गौ के विकास व (सं)वर्द्धन की पूजा की जाती है, फिर पक्षियों और गोबर-गोयठे को लिए छठ-गान आरम्भ हो ।
प्रकृति की पूजा के विहित बाँस, गेहूँ, अरवा चावल, नारियल, टाभा नींबू, नारंगी सहित तमाम मौसमी फल एवं मिट्टी, जल, लत युक्त सब्जी के विन्यस्त: पत्ता सहित मूली, पत्ता सहित अदरक, हल्दी, गाजर, सुतनी, शकरकंद, मिश्रीकंद, पानी सिंघाड़ा, चना, मटर, संस्कृतिनिमित्त खबौनी, ठेकुआ इत्यादि पूज्यनीय हो जाते हैं , यही तो प्रकृति की पूजा है।
पृथ्वी जहां सूर्य के इर्द-गिर्द ही सम्मोहित है, उसी भाँति पृथ्वीवासी ये ‘छठव्रती’ भी सूर्य और नदी जल के साथ जुड़ाव लिए हैं । पूर्व चर्चा में आये विशुद्ध आहार को ही ग्रहित किये जाकर, किन्तु 36 घण्टे निर्जला उपवास जहां ‘योग’ के प्रसंगश: आज के दैहिक-जरूरी के लिए अति महत्वपूर्ण तत्व है।
कार्तिक मास में सूर्यताप अत्यधिक कम हो जाती है, इसके विन्यस्त: कार्तिक शुक्ल षष्ठी को जलाच्छादित शरीर से सूर्य को अर्घ्य देने से शरीर में जल ‘क्रॉस’ कर सूर्यप्रकाश प्राप्त होने से शरीर रोगमुक्त होती है। परंतु हाँ, धरती घूमती है सूर्य की परिक्रमा के प्रसंगश: और एतदर्थ प्रकृतिपर्व सूर्योदय और सूर्यास्त में ‘अर्घ्य’ विन्यास को लेकर है!