वो मुझको ढूँढ़ रहा है
फिर मिल गया अचानक वह मुझे
बालों की उलझी गुथों में
बेतहाशा उलझा हुआ
मचला कुचला कसमसाता
सूखा बेजान पत्ता सा हुआ…..
बड़े दिन भी तो हो गए थे
उसे करीने से सँवारे
उसकी गहराई आँखों में
खुद को जी भरकर निहारे….
अतिप्रिय भी किंतु उपेक्षित सा
भंडार घर में रखी किसी
कदाचित पुरानी वस्तु सा ….
वक्त की गर्द हो या फिर
उपेक्षाओं का असहनीय दर्द
सब कुछ मौन सहते हुए
बरसों बरस से शांत क्लांत और मौन
बैठा रहता है दिल को ढाढ़स बंधाये
एक उपकार की आस लगाये….
कई बार ऐसा भी होता है
गुजरते वक़्त के साथ बदल से गए
ज़िन्दगी के नए बाजार में
लाख ढूंढने पर भी जब
नही मिलता किसी आउट डेटेड
सामान का कोई ज़रूरी कलपुर्जा ….
उपहार स्वरूप दे जाता है वह
वह उपेक्षित स्वयं को काटकर
अनायास किसी मायूस चेहरे पर
एक चटकीली सी मुस्कान ….
फिर महीनों थपथपाता रहता है
अपनी शुष्क हथेली से
उसकी गर्दीली पीठ साभिमान….
घण्टों सुलझाती रहीं उलझी लटें
खुदराई उँगलियों की नम पोरें….
समय की हवाओं उलझाई
एक एक कर खोलते हुए डोरें …
हथेली पर प्यार से रखकर
रह रहकर उसे सहलाते
समझाती रही फिर जाने कितनी
जीवन की विषमताओं की घातें….
कलेजा काटकर जीवन देने वाला
अर्धमूर्छित सा वह आज
सुन भी पाया होगा क्या
दो शब्द भी मेरे ख़ाक….
अपनी जड़ हुई आँखों से निश्छल,
एकटक बस मुझे ही ताक रहा था
आज जैसे वह अपना सर्वस्व सौंप
ज्यों आखिरी स्वांसें नाप रहा था..
मुझमे बचे खुचे अपने अस्तित्व को
मन ही मन आँक रहा था….
उसे भला कैसे मैं यूँ ही
अलविदा कह सकती हूँ
एक उसके वजूद के बिना
क्या मैं भी ,मैं रह सकती हूँ,,,,
देर ही से सही लेकिन
यह सच तो उससे कह सकती हूँ…
शुष्कता ओढ़ते मौसम में
मन की दीवार भरभराई
जाने किस घाट को छोड़कर
एक नदी आँखों बेतहाशा उफनाई…
आईने के ऊपर चढ़ी मोटी धूल
बहा ले गयी वह अपने साथ
बैठ गया झट उठकर वह भी
थामकर फिर मेरा हाथ,,,,
काजल की फैली कोरों पर
कब से जाने क्या क्या फूंक रहा है
कभी वह मुझमे आईना
तो कभी आईने में मुझको ढूंढ रहा है ….
प्रियंवदा