नारी-पुरुष कदमताल
नारी तो ‘माँ’ का अद्भुत रूप होती है, जिन्हें परिभाषित नहीं की जा सकती ! ‘बहन’ और ‘बेटी’ तो पुरुष की सहयोगिनी हैं, जो परिभाषित है।
किन्तु नारी का एक अनन्य रूप प्रेमिका और पत्नी की हैं, जिसे न तो प्रेमी और न ही पति बूझ सका है आजतक!
क्या ‘नारी’ इस अनन्य रूप में सचमुच में अबूझ पहेली है या यह कृत्य वह जानबूझकर करती हैं, कोई महिला मनोविश्लेषक ही इसे व्याख्यायित कर सकती हैं ? क्योंकि कोई पुरुष इसके विश्लेषणार्थ असहाय है।
बावजूद, हरकोई स्त्री के प्रति सहानुभूति रखता है, किन्तु ‘मोहम्मद शमी’ और ‘हसीन जहाँ’ के मामले में बात इतनी बढ़ी हुई है कि इसे उन दोनों के घर अथवा पारिवारिक न्यायालय ही सुलझा सकते हैं ! मेरे प्यारे आशुतोष भाई !
कहते हैं, भारतीय स्त्रियाँ अब किसी भी क्षेत्र में भारतीय पुरुषों से कम नहीं रही ! वे कंधे से कंधे मिलाकर ही नहीं, साथ-साथ कदमताल कर रही हैं! सच में, कार्यालयों में भी उन्हें समान काम के लिए पुरुष सहकर्मियों के समान वेतन भुगतान की जाती हैं, किन्तु बॉर्डर पर सैनिकों (लांस नायकों) के पद पर वे विराजमान नहीं हैं ।
चलिए, हम बाहरी क्षेत्र से अलग घर के क्षेत्र यानी आंतरिक क्षेत्र में आते हैं, तो यहाँ भी स्त्री कर्मियों से कार्य नहीं ली जाती हैं । चुनाव में 2% महिलाएँ ही और वह भी नगर क्षेत्र में कार्यरत रहती हैं, जबकि 98% पुरुष कर्मी ही इस महापर्व में presiding officers तथा polling officers यानी पीठासीन पदाधिकारी व मतदान पदाधिकारी होते हैं!
जब समान वेतन पा रही हैं वो, फिर समान कार्य पर क्यों नहीं लगाई जाती ! महिला कर्मियों की भी चुनाव में 100% भागीदारी व उपस्थिति सुनिश्चित करवाइए, तब न नारी सशक्तिकरण के तत्वश: वो ‘अबला’ नहीं ‘सबला’ कहलाएंगी, माननीय सरकार जी ! माननीय चुनाव आयोग जी !