ग़ज़ल
न हुई मुकम्मल ख्वाहिशें और रहा मलाल बरसों,
चंद ख्वाबों को संजोए मैं फिर भी राह चलता रहा।
नामुमकिन लगा जब कुछ सवालों का जवाब तो,
मुट्ठी मैं खोल कर अपनी यूंही हथेली मलता रहा।
इंतजार की इंतेहा जब सब्र खोने लगी रह रहकर,
उस अधूरे ख्वाब का जिक्र मन को खलता रहा।
मिलता नहीं किसी को दिल के चाहने भर से सब,
मैं कोशिशें तमाम सब हार कर भी करता रहा।
इक दिए ने मुझे जलना आंधियों में भी सिखा दिया,
शुक्र मान कर मैं कभी खामोश कभी हंसता रहा।
— कामनी गुप्ता