दीपावली से छठ तक
‘दीपावली से छठ तक’ शीर्षक न्यूज़फ़ीचर, जो जयपुर (राजस्थान) से प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘आमख्याल’ के दिनांक- 09.12.1993 अंक में प्रकाशित हुई थी । खासकर ‘छठ’ पर सदानंद पाल द्वारा लिखित और प्रेषित इसतरह के रिपोर्टिंग की आयु अब 27 बरस हो गयी है ! ध्यातव्य है, ‘दीपावली से छठ तक’ नामक शीर्षक राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘आमख्याल’ के दिनांक- 09.12.1993 अंक में छपा था । खासकर ‘छठ’ पर मेरे द्वारा लिखित और प्रेषित इसतरह के रिपोर्टिंग की आयु अब 23 बरस हो गयी है । सम्प्रति वर्ष-2020 में भारत के लगभग 25-30 करोड़ आबादी ‘छठ’ से प्रभावित हैं । यह कुल भारतीय मानवों के 5वाँ हिस्सा है । मूलत: बिहार, झारखण्ड सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश, प. बंगाल के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र, नेपाल के मधेशी क्षेत्र में ‘छठ’ मनाये जाते हैं । इन क्षेत्रों को छोड़कर जहाँ ‘छठ’ नहीं मनाये जा रहे हैं , वैसे राज्यों (राजस्थान) के राष्ट्रीय अखबार ‘आमख्याल’ में इनसे सम्बंधित रिपोर्टिंग-फ़ीचर पहलीबार मेरी ही छपी थी । यह पर्व folk festival लिए विस्तृत क्षेत्र और आबादी को प्रभावित करता है ।
‘छठ’ विशुद्ध रूप से शाकाहार, आरवाहार, फलाहार इत्यादि आधारित पर्व है । मैं इस पर्व की आस्था, अंध-आस्था, लोक-मानस से उपजे गल्प या किसी प्रकार की सही पौराणिकता के ऊहापोह व मरीचिका में न आगोशित हो, इनकी वैज्ञानिकता पर जाते हैं । …. वर्षा जल से आक्रान्त पोखर-तालाब, नाले-गड्ढे के सूखते रूप तथा भद्दापन लिए घर-दरवाजे को पूर्व रूप देते-देते व सफाई करते-करते कार्तिक अमावस्या आ जाती है और सनातन धर्मावलम्बी इस रात (अमावस्या के कारण अँधेरी) काफी संख्या में दीप प्रज्वलित कर कीड़े-मकौड़े-मच्छरादि को भगाने का प्रयास करते है, जो विज्ञान-सम्मत है । दीपावली के अगले दिन पशु-प्रेम के प्रासंगिक मवेशी की पूजा (गोवर्द्धन पूजा) की जाती है, फिर पक्षियों और गोबर-गोयठे को लिए छठ-गान आरम्भ हो जाती है । प्रकृति की पूजा के विहित बाँस, गेहूँ, अरवा चावल, नारियल, टाभा नींबू, नारंगी सहित तमाम मौसमी फल एवं मिट्टी, जल, लत युक्त सब्जी के विन्यस्त: पत्ता सहित मूली, पत्ता सहित अदरक, हल्दी, गाजर, सुतनी, शकरकंद, मिश्रीकंद, पानी सिंघाड़ा, चना, मटर, संस्कृतिनिमित्त खबौनी, ठेकुआ इत्यादि पूज्यनीय हो जाते हैं , यही तो प्रकृति की पूजा है । पृथ्वी जहां सूर्य के इर्द-गिर्द ही सम्मोहित है, उसी भाँति पृथ्वीवासी ये ‘छठव्रती’ भी सूर्य और नदी जल के साथ जुड़ाव लिए हैं । पूर्व चर्चा में आये विशुद्ध आहार को ही ग्रहित किये जाकर, किन्तु 36 घण्टे निर्जला उपवास जहां ‘योग’ के प्रसंगश: आज के दैहिक-जरूरी के लिए अति महत्वपूर्ण तत्व है । कार्तिक शुक्ल षष्ठी को जलाच्छादित शरीर से सूर्य को अर्घ्य देने से शरीर में जल ‘क्रॉस’ कर सूर्यप्रकाश प्राप्त होने से शरीर रोगमुक्त होती है।
इतना ही नहीं, दलित वाल्मीकि की कलाकृति बाँस की सूप, मौनी, डलिया इत्यादि , फिर पिछड़ी जातियों द्वारा उपजाए गए सामग्रियाँ इनमें शामिल होकर इस महौत्सव को चार-चाँद लगा बैठते हैं । आज हिन्दू के अतिरिक्त कई धर्मावलंबियों द्वारा ये पर्व मनाये जाते हैं , हमारे यहाँ इस्लाम और सिख आदि धर्मावलम्बी भी मनाते हैं । पूरे अनुष्ठान में सूर्य-पूजा को केंद्रित यह पर्व विज्ञान आधारित है ।