ग़ज़ल
जिसमें शामिल मेरा नबी ही नहीं,
फिरतो महफ़िल समझ सजी ही नहीं।
इक खुदा छोड़ दर ब दर भटका,
बात लेकिन कहीं बनी ही नहीं।
आखिरी है पयामबर रब का,
उससे बढ़कर कोई नबी ही नहीं।
जो मिरे हौसले को तोड़ सके,
ऐसी तलवार तो बनी ही नहीं।
उसने फेंके मेरी तरफ पत्थर,
जिससे मेरी कभी ठनी ही नहीं।
— हमीद कानपुरी