दहलीज ( लघुकथा )
“सुनिये ना क्या तय किये आप ; मानती हूँ सारी गलती हमारी है। घर छोड़ने को मैंनें ही आपको मजबूर किया था। पर क्या करुँ कुछ बचपना कुछ बहनों के कान भरने की वज़ह से माँ बाबूजी के साथ मैं निभा नहीं पाई और आपको अपने परिवार से दूर कर दी ।”
“मुझे अब इस बारे में कोई बात नहीं करनी है ,मैके वालों की बातों में आकर तुमने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा , अब किस मुँह से पापा के पास याचक बन कर जाऊँ?”
“कहो तो कान पकड़ लूँ अपने बेटे को सुरक्षित भविष्य देने के लिये आप कहो तो मैं बाबूजी के पैरों पर गिर जाऊँ ,पर एक बार बात करके तो देखो । वह माता-पिता हैं हो सकता है उनका दिल पसीज जाये।”
तभी दरवाजे पर घंटी बजी ; अरे इतनी देर रात कौन आया होगा !
दरवाजा खोलते ही बाबूजी और माँ नज़र आये।
“घर चलो बहु सुना है मुन्ने को नौकरी से निकाल दिया गया है। ऐसे में मकान का किस्त एवं छोटू एवं मिनी की पढ़ाई लिखाई ! माना तुमने कसम खा रखी थी कि आपके दहलीज पर कभी पाँव नहीं रखूँगी। परंतु मैं जबरदस्ती तुम्हें लेने आई हूँ ।‘पूत कपूत होत है ,पर माता ना हो कुमाता’ ।”
“माँ जी मुझे माफ कर दिजिये और अपनी शरण में हमें लिजिए। काश दहलीज लाँघने से पहले सुरक्षा घेरे का अहसास होता।”
“बहू, परम्पराओं एवं संस्कारोंं का निर्वहन करने की सीख बड़े देते हैं , शायद दहलीज का मतलब मैं समझाने में असमर्थ रही ।”
— आरती राय