ग़ज़ल-गुनगुनाए जा रहे हैं
किसलिए हम ख़ुश हैं क्यों हम मुस्कुराए जा रहे हैं.
लोग कुछ इस बात पर ही ख़ार खाए जा रहे हैं.
आम थे जो लोग पहले आम ही हैं आज भी वो,
बरगलाए जा रहे थे, बरगलाए जा रहे हैं.
रेत के बनते महल जो टिक नहीं पाते कभी वो,
जानकर भी लोग जाने क्यों बनाये जा रहे हैं.
उनकी ग़लती है मगर हम कुछ न कहने पायें उनको,
इसलिए इल्ज़ाम हम पर ही लगाये जा रहे हैं.
तोड़ने में कोई रिश्ता कुछ समय लगता नहीं पर,
हमको लगता है न टूटे सो निभाये जा रहे हैं.
कौन तूफाँ लड़ सकेगा हौसलों के दीपकों से,
वो बुझाये जा रहे हैं हम जलाये जा रहे हैं.
एक दिन उसने कहा था-आप भी गाते हैं अच्छा,
तबसे जाने क्या हुआ- हम गुनगुनाये जा रहे हैं.
— डाॅ. कमलेश द्विवेदी