कविता

पगडंडियां

वो टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियां
गाँव गाँव की पहचान थीं,
उन दिनों गांव घर पहुँचने की
वहीं पहचान थीं।
पगडंडियाँ भी हमें पहचानती थीं
हमें बिना किसी परेशानी के
हमें गाँव घर पहुँचाती थीं।
भले ही मूँज बेहया झाडियों के बीच
वो पतली सी पगडंडियां
पहचान थीं।
मगर वो ही आम जन की जान थीं,
उस समय वही
सबकी शान थीं,
कम से कम हमें विश्वास था,
पगडंडियां ही हमारे और हमारे
परिवार का विश्वास था।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921