दीपोत्सव
किसी जगह पर दीप जले अरु कहीं अँधेरी रातें हों ।
नहीं दिवाली पूर्ण बनेगी, अगर भेद की बातें हों ।।
ऐसे व्यंजन नहीं चाहिए, हक हो जिसमें औरों का ।
ऐसी नीति महानाशक है, नाश करे जो गैरों का ।।
हम तो पंचशील अनुयायी, सबके सुख में जीते हैं ।
अगर प्रेम से मिले जहर भी, हँस करके ही पीेते हैं ।।
चूल्हा जले पड़ोसी के घर, तब हम मोद मनाते हैं ।
श्मशान तक कंधा देकर, अन्तिम साथ निभाते हैं ।।
किन्तु चोट हो स्वाभिमान पर, जिन्दा कभी ना छोड़ेंगे ।
दीप जलाकर किया उजाला, राख बनाकर छोड़ेंगे ।।
दीपोत्सव का मतलब है यह, सबके घर खुशहाली हो ।
दीन दुखी निर्बल के घर भी, भूख मिटाती थाली हो ।।
प्रथम दीप के प्रथम रश्मि की, कसम सभी जन खायेंगे ।
दीप जलाकर सबके घर में, अपना दीप जलायेंगे ।।
घर घर में जयकारा गूँजे, कण कण में खुशहाली हो ।
सच्चे अर्थों में उस दिन ही, दीपक पर्व दिवाली हो ।।
— डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’