सत्य का ग्रहण व धारण तथा असत्य का त्याग ही मनुष्य का धर्म एवं कर्तव्य
ओ३म्
परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धि दी है जो ज्ञान प्राप्ति तथा सत्य व असत्य के विवेचन में मनुष्य की आत्मा की सहायक होती है। मनुष्य को सत्य व असत्य के स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। सत्य को जानकर ही मनुष्य व उसकी आत्मा की उन्नति व सत्य को न जानने से मनुष्य असत्य तथा अविद्या से युक्त हो जाते हैं जिससे मनुष्य व उसके जीवन की अवनति होती है। मनुष्य सत्य को कैसे प्राप्त कर सकता है? इसका उत्तर है कि अपनी बुद्धि की सहायता से ईश्वरीय ज्ञान वेद व सद्ग्र्रन्थों का अध्ययन कर तथा उनकी प्रत्येक मान्यता का विचार व परीक्षा कर उसके सत्य व असत्य होने की पुष्टि कर सकता है। मनुष्य जिस मान्यता को मानता है उसके विपरीत उठने वाले सभी प्रश्नों पर विचार करने सहित उसके पक्ष व समर्थन में जो विचार व कथन होते हैं, उनकी परीक्षा कर वह सत्य को प्राप्त हो सकते है। ऋषि दयानन्द ने इसी विधि से न केवल सनातन वैदिक धर्म अपितु अन्य मत-मतान्तरों का अध्ययन भी किया था। उनका उद्देश्य सत्य का ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना था। उन्होंने ऐसा यथार्थ रूप किया भी। उन्हें किसी मत व सम्प्रदाय की सत्य मान्यता का खण्डन नहीं किया। इसके साथ ही उन्हें जिस मत की जो बात भी सत्य के विपरीत दृष्टिगोचर हुई तथा जिसकी पुष्टि सत्य का निर्धारण करने के सिद्धान्त से असत्य सिद्ध हुई, उसका उन्होंने निर्भयता से प्रकाश किया जिससे सभी मनुष्य असत्य का त्याग कर उसके दुष्परिणामों से बच सकें। मनुष्य का जीवन कर्म फल बन्धन में बंधा हुआ होता हैं। मनुष्य ज्ञान व अज्ञान से युक्त जो भी कर्म करता है, उसका फल उसे ईश्वर व उसकी व्यवस्था से प्राप्त होता है। मनुष्य को अपने सभी पाप व पुण्य कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। उसे कोई मत व उसका आचार्य क्षमा नहीं करा सकता। अनेक मतों में लोगों को लुभाने के लिये पापों के क्षमा होने का विधान मिलता है जिसका ऋषि दयानन्द के विचारों से खण्डन होता है।
यदि मनुष्य सत्य कर्म करता है तो उसको इससे पारितोषिक के रूप में ईश्वर से सुख सहित आत्मिक, शारीरिक व सामाजिक उन्नति प्राप्त होती है, वह यशस्वी होता है और यदि वह सत्य की उपेक्षा कर अविद्या व स्वार्थ वश असत्य कर्म करता है इसका दण्ड भी उसे परमात्मा से यथासमय प्राप्त होता है। संसार का कोई भी मनुष्य दुःख को प्राप्त होना नहीं चाहता। इसलिये उसे सुख प्राप्ति के लिये ज्ञान से युक्त होकर केवल सत्य कर्मों व कर्तव्यों का ही सेवन करना उचित होता है। ऐसा करके ही आत्मा की उन्नति होकर मनुष्य को सुख प्राप्त होता है। यह सिद्धान्त वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश आदि सभी प्रामाणिक ग्रन्थों से पुष्ट होता है। सभी मनुष्य सुखी हों, उनको दुःख प्राप्त न हों, इसी कारण से ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वरीय ज्ञान वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों को अपनाया था तथा उनका प्रचार किया था। लोगों की सहायता के लिये ही उन्होंने तीन हजार से अधिक ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी सत्य मान्यताओं को वैदिक प्रामाणिक ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” में प्रस्तुत किया था। सत्यार्थप्रकाश संसार का अनुपम एवं मनुष्य जीवन की उन्नति का आधार स्तम्भ है। यह मनुष्य को सत्य मान्यताओं से परिचित कराने के साथ असत्य का बोध भी कराता है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश में सत्य का पोषण और असत्य का खण्डन किया गया है। इस कारण से सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को आध्यात्मिक एवं धार्मिक विज्ञान विषयक ग्रन्थ व धर्म विषयक एक विश्व कोष कह सकते हैं। संसार के सभी मनुष्यों को इसका अध्ययन कर इससे लाभ उठाना चाहिये। ऐसा करके हम वर्तमान व भविष्य सहित परलोक के दुःखों से बच सकते हैं। इसी में संसार के सभी मनुष्यों का हित है। ऐसा न करके मनुष्य अपने मनुष्य जीवन को सुधारने के स्थान पर उसकी हानि करता है और इससे उसका परलोक भी बिगड़ता है।
संसार में हम देखते हैं कि मनुष्य विद्या पढ़कर ही विद्वान व सुखी होते हैं। अज्ञान ही मनुष्य के दुःखों का कारण हुआ करता है। शिक्षा प्राप्त करते व अध्ययन करते हुए मनुष्य किसी विषय के सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का ही अध्ययन करता व उसको अपनाता है। इसी से उसे नाना प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं और वह समाज में धन व ऐश्वर्य सहित सम्मान भी अर्जित करता है। यदि वह विद्या की पुस्तकों में वर्णित सत्य बातों का त्याग कर उसके विपरीत बातों को अपना ले तो समाज में उसकी ख्याति व उन्नति नहीं होती। इसी प्रकार से धर्म व समाज में भी मनुष्य को सत्य सिद्धान्तों, मान्यताओं, क्रियाओं व कर्मों अथवा कर्मकाण्डों व परम्पराओं को ही अपनाना होता है। जो ऐसा करते हैं उनका सभी लोग मान व सम्मान करते हैं। सभी लोग विश्व में उत्पन्न विद्वानों व वैज्ञानिकों का इसीलिए सम्मान करते हैं कि उनके सभी कार्य व खोजें मनुष्य जाति की उन्नति वा सुख के लिये होती हैं। कोई मनुष्य विद्वानों व वैज्ञानिकों का उनके देश व अन्य बातों के आधार पर सम्मान नहीं करता अपितु उनकी योग्यता व उससे होने वाले मनुष्यों के हित के लिये सम्मान करता है। इसी प्रकार से धर्म व समाज में भी ऐसे ही विद्वानों, धर्माचार्यों व धर्म प्रचारकों को सम्मान मिलना चाहिये जो अपनी सभी बातों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर सिद्ध कर प्रचार करते हों।
ऐसा करता हुआ कोई आचार्य व धर्माचार्य दिखाई नहीं देता। अपवाद केवल ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी ही हुए हैं जो अपनी प्रत्येक मान्यता व कर्मकाण्ड को करने के पक्ष में तर्क, युक्ति व प्रमाण देते हैं। इसलिये यह आवश्यक होता है कि जो धर्म व व्यवहार की बातें प्रामाणिक, तर्क एवं युक्ति से सिद्ध हों उसी को स्वीकार करना चाहिये। धर्म व सम्प्रदायों में सत्य को मानने व असत्य का त्याग करने का सिद्धान्त काम करता दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्वत्र ‘अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग’ जैसी स्थिति देखी जाती है। इसी कारण से समाज अनेक मत-मतान्तरों एवं सम्प्रदाय आदि में बंटा हुआ है। इन कारणों से सदियों से मनुष्य मनुष्य के बीच संघर्ष होता आ रहा है और यह हमेशा चलता रहेगा। इसके समाधान का एक ही मार्ग है कि मनुष्य मत-मतान्तरों की सभी मान्यताओं की परीक्षा कर उनको सत्य पर स्थिर करें और अपनाये। यही ऋषि दयानन्द सहित भारत के सभी ऋषियों का मत रहा है। ऐसा करके ही मनुष्य जीवन की उन्नति सहित मनुष्य जाति, देश व समाज उन्नत हो सकते हैं और विश्व में साम्प्रदायिक संघर्ष समाप्त होकर सौहार्द, शान्ति व सुख की स्थापना हो सकती है।
इस प्रसंग में ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास की भूमिका में लिखे गये विचार प्रासंगिक एवं जानने योग्य हैं। वह लिखते हैं कि यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई मत न था क्योंकि वेदोक्त मत (धर्म) की सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इन वेदों की अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मरनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया उसने वैसा मत चलाया। उन सब मतों में 4 मत अर्थात् जो वेद-विरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी अैर कुरानी सब मतों के मूल हैं वे क्रम से एक के पीछे दूसरा, तीसरा, चैथा चला है। अब इन चारों की शाखायें एक सहस्र से कम नही हैं। इन सब मतवादियों, इन के चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्यासत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न करना पड़े इसलिए ऋषि दयानन्द ने यह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ बनाया है। इसी प्रसंग में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि उनका तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्य और असत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्य और असत्य का निर्णय करने कराने के लिये है, न कि वाद-विवाद और विरोध करने-कराने के लिये। इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए हैं, होते हैं और आगे होंगे, उन को पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं।
ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का (प्रचार व) विरुद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योअन्य (सभी मनुष्यों) को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य ओर विशेष विद्वान लोग ईष्र्या-द्वेष छोड़ कर सत्य और असत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो यह बात असाध्य नहीं है। ऋषि कहते हैं कि यह निश्चय है कि मत-मतान्तरों के विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंस कर सब के प्रयोजन को सिद्ध करना चाहैं तो इसी समय एक मत हो सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने यह भी प्रार्थना की है कि सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करें। ऋषि दयानन्द के इन विचारों से ज्ञात होता है कि वह संसार से असत्य व अविद्या को दूर कर सब मनुष्यों को एक सत्य मत से युक्त करना चाहते थे। इसी का समाधान उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर किया था।
ऋषि दयानन्द ने 16 नवम्बर, 1869 को सत्य को स्वीकार कराने हेतु काशी के शीर्ष पण्डितों से काशी में मूर्तिपूजा के वेदविहित होने पर शास्त्रार्थ किया था जिसमें उनका पक्ष सत्य सिद्ध हुआ था। आज भी उनके द्वारा स्थापित पक्ष अविजित है। ऐसा होने पर भी मूर्तिपूजा पूर्ववत जारी है। धार्मिक व सामाजिक जगत में सत्य को स्वीकार करना व असत्य का त्याग करना विचारणीय है। सब मतों के विद्वानों को निष्पक्षता एवं सम्पूर्ण मानवजाति के हित में सभी असत्य मान्तयाओं एवं सिद्धान्तों सहित पाखण्डों एवं सामाजिक कुरीतियों पर विचार करना चाहिये।
हमने ऋषि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर और उनकी भावना को उचित एवं आवश्यक जानकर यह लेख प्रस्तुत किया है। सभी मानते हैं कि मनुष्य को सत्य का ग्रहण करना चाहिये और असत्य का त्याग करना चाहिये। परन्तु इस पर व्यवहार होता हुआ दिखाई नहीं देता है। सभी मत के विद्वानों को ऋषि दयानन्द एवं वेदों की बातों पर विचार कर अपने अपने मत की परीक्षा करनी चाहिये। सबको सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। आपकी टिप्पणी पढ़कर प्रसन्नता हुई। सादर धन्यवाद। समय समय पर अपना आशीर्वाद प्रदान करती रहें। मगल कामनाओं सहित।
प्रिय मनमोहन भाई जी, स्नेह पर्व भाईदूज की शुभकामनाएं 💐💐💐💐💐. आपके आलेख अत्यंत प्रेरणादायक व जीवनोपयोगी होते हैं. आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. सत्य का ग्रहण व धारण तथा असत्य का त्याग ही मनुष्य का धर्म एवं कर्तव्य है. अत्यंत सार्थक व सटीक रचना के लिए बधाई.