लघुकथा – मांग
अफसोस अब नहीं होता मैंने जीने की आदत डाल ही ली थी ।अब तुम्हारे न रहने का कोई मलाल नहीं होता।मै मान चुका हूं कोई मेरे साथ उम्रभर तो साथ नहीं रह सकता। अब इस अकेलेपन से मेरी दोस्ती हो चुकी है।किसने कहा कि मैं पहेले की तरह आंसू नहीं बहाता मैं अब जिंदगी को खुलके जीने वाला हूं तुम मेरे साथ हो किसने कहा साथ रहने के लिए जरूरीनहीं कि एक छत में रहो कभी कभी दूर रहकर भी पास रहा जा सकता है
सोशल मीडिया भी है जब मन करेगा तो वीडियो काल कर लूंगा किसने कहा बात सामने ही होती है बिछड़कर पहेले भी खत के माध्यम से दिल का हाल लिखा और पढ़ा जाता था पहले तो फोन नहीं होता था लेकिन अब तो है ना जब भी दिल करेगा तो बात कर लूंगा
तुम्हारा नाम मेरे दिल के न मिटने वाले पन्ने पे लिख गया है तुम चाहकर भी उसको मिटा नहीं सकते तुम मेरे थे और हमेशा रहोगे ये दूरियां हमें जुदा नहीं कर सकते ये कागज के चंद तुकडे हमें जुदा नहीं कर सकते भूलकर भी में तुम्हे भुला नहीं सकता।वो इतना सोच ही रहा था
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई मैंने पुछा कौन है आ रहा हूं अब दरवाजा ही तोड डालोगे क्या
दरवाजा खोलते ही सामने डाकिया खड़ा था आपने नाम कोरियर आया है कैसा कोरियर है जाने क्या लिखा होगा उसके मन में ढेरों सवाल आ रहे थे और उसको अनहोनी होने का डर सता रहा था उसने कांपते हाथों से कोरियर खोला और चिठ्ठी निकालकर पढ़ने लगा
डियर राजीव में ने तुमसे अलग होने का मन बना लिया है तुम भी अपनी जिंदगी फिर से शुरू करो और खुश रहो मैं भी तुमको खुश देखकर खुश हो लूंगी अब मैने तुमसे अलग होने का फेसला कर लिया है
तलाक शब्द सुनकर उसकी आंखें भर आईं वो कुछ देर फूटकर रोता रहा फिर उसने भी बात को सकारात्मक लिया और लिखा ठीक है तुम्हारी ये इच्छा भी मैं पूरी करूंगा तुमसे प्यार जो करता हूं ।तुम्हारी जायज और नाजायज मांग माननी ही पड़ेगी।
— अभिषेक जैन